SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) __२२० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक २३ टि० ६५-६७ श्लोक २३: ६५. श्लोक २३: इस श्लोक में बताया गया है कि जब मुनि आहार के लिए घर में प्रवेश करे तो वहाँ पर उसे किस प्रकार दृष्टि-संयम रखना चाहिए। ६६. अनासक्त दृष्टि से देखे ( असंसत्तं पलोएज्जा क ): स्त्री की दृष्टि में दृष्टि गड़ाकर न देखे अथवा स्त्री के अंग-प्रत्यंगों को निनिमेष दृष्टि से न देखे। आसक्त दृष्टि से देखने से ब्रह्मचर्य-व्रत पीड़ित होता है-क्षतिग्रस्त होता है। लोक आक्षेप करते हैं - 'यह श्रमण विकार-ग्रस्त है।' रोगोत्पत्ति और लोकोपघात... इन दोनों दोषों को देख मुनि आसक्त दृष्टि से न देखे । मुनि जहाँ खड़ा रहकर भिक्षा ले और दाता जहाँ से आकर भिक्षा दे-वे दोनों स्थान असंसक्त होने चाहिए—त्रस आदि जीवों से समुपचित नहीं होने चाहिए। इस भावना को इन शब्दों में प्रस्तुत किया गया है कि मुनि असंसक्त स्थान का अवलोकन करे । यह अगस्त्यचूणि की व्याख्या है । 'अनासक्त दृष्टि से देखे' यह उसका वैकल्पिक अर्थ है। ६७. अति दूर न देखे ( नाइदूरावलोयए ख ): मुनि वहीं तक दृष्टि डाले जहाँ भिक्षा देने के लिए वस्तुएँ उठाई-रखी जाएं । वह उससे आगे दृष्टि न डाले। घर के दूर कोणादि पर दृष्टि डालने से मुनि के सम्बन्ध में चोर, पारदारिक आदि होने की आशंका हो सकती है। इसलिए अति दूर-दर्शन का निषेध किया गया है। अगस्त्य-चूणि के अनुसार अति दूर स्थित साधु चींटी आदि जन्तुओं को देख नहीं सकता। अधिक दूर से दिया जाने वाला आहार अभिहृत हो जाता है, इसलिए मुनि को भिक्षा देने के स्थान से अति दूर स्थान का अवलोकन नहीं करना चाहिए-खड़ा नहीं रहना चाहिए । अति दूर न देखे ---यह उसका वैकल्पिक रूप है । १-(क) जि० चू० पृ० १७६ : असंसत्तं पलोएज्जा नाम इत्थियाए दिछि न बंधेज्जा, अहवा अंगपच्चंगाणि अणिमिस्साए दिछीए न जोएज्जा। (ख) हा० टी० ५० १६८ : 'असंसक्तं प्रलोकयेत्' न योषिद् दष्टेष्टि मेलयेदित्यर्थः । २-(क) जि. चु०प्र० १७६ : किं कारणं?, जेण तत्थ बंभवयपीला भवइ, जोएंतं वा दळूण अविरयगा उडाहं करेज्जा-पेच्छह समणयं सवियारं। (ख) हा० टी० ५० १६८ : रागोत्पत्तिलोकोपघातदोषप्रसङ्गात् । ३--अ० चू० पृ० १०६ : संसत्तं तसपाणातीहि समुपचित्तं न संसत्तं असंसत्तं, तं पलोएज्ज, जत्थ ठितो भिक्ख गेण्हति दायगस्स वा आगमणातिसु..... . . . . . . . . . 'अहवा असंसत्तं पलोएज्जा बंभवयरक्खणत्थं इत्थीए दिठ्ठीए दिट्ठि अंगपच्चंगेसु वा ण संसत्तं अणुबंधेज्जा, ईसादोसपसंगा एवं संभवंति । ४- (क) जि. चू० प० १७६ : तावमेव पलोएइ जाव उक्खेवनिक्खेवं पासई । (ख) हा० टी० ५० १६८ : 'नातिदूरं प्रलोकयेत्'-दायकस्यागमनमात्रदेशं प्रलोकयेत् । ५-(क) जि० चू० पृ० १७६ : तओ परं घरकोणादी पलोयंत दळूण संका भवति, किमेस चोरो पारदारिओ वा होज्जा ? एव मादि दोसा भवंति । (ख) हा० टी० ५० १६८ : परतश्चौरादिशङ्कादोषः । ६–अ० चू० १० १०६ : तं च णातिदूरावलोयए अति दूरत्थो पिपीलिकादीणि ण पेक्खत्ति, अतो तिघरतरा परेण घरतरं भवति पाणजातियरक्खणं ण तीरति ति ..........." (अहवा) णातिदूरगताए वत्तससणिद्धादीहत्यमत्तावलोयणमसंसत्ताए दिट्ठीए करणीयं । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy