SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २१६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक २२ टि० ६१-६४ ११. तत्काल का लीपा और गीला ( अहणोवलित्तं उल्लंग ) : तत्काल के लीपे और गीले आँगन में जाने से सम्पातिम सत्त्वों की विराधना होती है । जलकाय के जीवों को परिताप होता है । इसलिए उसका निषेध किया गया है। तुरन्त के लीपे और गीले कोष्ठक में प्रवेश करने से आत्म-विराधना और संयम-विराधना-ये दोनों होती हैं। श्लोक २२: ६२. श्लोक २२: पूर्व की गाथा में आहार के लिए गये मुनि के लिए सूक्ष्म जीवों की हिंसा से बचने का विधान है । इस गाथा में बादरकाय के जीवों की हिंसा से बचने का उपदेश है । ६३. भेड़ ( एलगंक ): पूर्णिकार 'एलग' का अर्थ 'बकरा' करते हैं । टीकाकार, दीपिकाकार और अवघूरीकार इसका अर्थ 'मेष' करते हैं। हो सकता है-एलग का सामयिक ( आगमिक ) अर्थ बकरा रहा हो अथवा संभव है वुर्णिकारों के सामने 'छेलओ' पाठ रहा हो । 'छेलओ' का अर्थ छाग है। १४. प्रवेश न करे ( न पविसे ग ) : भेड़ आदि को हटाकर कोष्ठक में प्रवेश करने से आत्मा और संयम दोनों की विराधना तथा प्रवचन की लघुता होती है । मेष आदि को हटाने पर वह सींग से मुनि को मार सकता है। कुत्ता काट सकता है । पाड़ा मार सकता है । बछड़ा भयभीत होकर बन्धन को तोड़ सकता है और बर्तन आदि फोड़ सकता है । बालक को हटाने से उसे पीड़ा उत्पन्न हो सकती है । उसके परिवार वालों में उस साधु के प्रति अप्रीति होने की संभावना रहती है । बालक को स्नान करा, कौतुक ( मंगलकारी चिन्ह ) आदि से युक्त किया गया हो उस स्थिति में बालक को हटाने से उस बालक के प्रदोष--अमङ्गल होने का लांछन लगाया जा सकता है । इस प्रकार एलक आदि को लांघने या हटाने से शरीर और संयम दोनों की विराधना होने की संभावना रहती है । १-(क) अ० चू० पृ० १०५ : उवलित्तमेत्ते आउक्कातो अपरिणतो निस्सरणं वा दायगस्स होज्जा अतो तं ( परि ) वज्जए। (ख) जि० चू० पृ० १७६ : संपातिमसत्तविराहणत्थं परितावियाओ वा आउक्काओत्तिकाउं वज्जेज्जा। (ग) हा० टी० ५० १६७ : संयमात्मविराधनापत्तेरिति । २- अ० चू० पृ० १०४ : सुहुमकायजयणाणंतरं बादरकायजयणोवदेस इति फुडमभिधीयते । ३-- (क) अ० चू० पृ० १०५ : एलओ बक्करओ। (ख) जि० चू० पृ० १७६ : एलओ छागो। ४-हा० टी० ५० १६७ : 'एडकं' मेषम् । ५-दे० ना० ३.३२ : छागम्मि छलओ। ६-हा० टी०प० १६७ : आत्मसंयमविराधनादोषाल्लाघवाच्चेति सूत्रार्थः । ७- (क) अ० चू० पृ० १०५ : एत्थ पच्चवाता-एलतो सिंगेण फेट्टाए वा आहणेज्जा । दारतो खलिएण दुक्खवेज्जा, सयणो वा से अपत्तिय-उप्फोसण-कोउयादीणि पडिलग्गे वा गेण्हणातिपसंगं करेज्जा । सुणतो खाएज्जा । वच्छतो वितत्थो बंधच्छेय भायणातिभेदं करेज्जा । वियूहणे वि एते चेव सविसेसा । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : पेल्लिओ सिंगेहिं आहणेज्जा, पडु वा वहेज्जा, दारए अप्पत्तियं सयणो करेज्जा, उप्फासण्हाणको उगाणि वा, पदोसेण वा पंताविज्जा, पडिभग्गो वा होज्जा ताहे भणेज्जा-समणएण ओलंडिओ एवमादी दोसा, सुणए खाएज्जा, वच्छओ आहणेज्जा वित्तसेज्ज वा, वितत्थो आयसजमविराहणं करेज्जा, विऊहणे ते चेव दोसा, अण्णे य संघट्टणाइ, चेडरूवस्स हत्थादी दुक्खावेज्जा एवमाइ दोसा भवंति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy