________________
दसवेआलियं ( दशवकालिक) २१८ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक २०-२१ टि० ८७-६०
अगस्त्यसिंह स्थविर ने इस श्लोक की व्याख्या में एक बहुत ही उपयोगी गाथा उद्धृत की है --"मूत्र का वेग रोकने से चक्षु की ज्योति का नाश होता है । मल का वेग रोकने से जीवनी-शक्ति का नाश होता है। ऊर्ध्व-वायु रोकने से कुष्ठ रोग उत्पन्न होता है और वीर्य का वेग रोकने से पुरुषत्व की हानि होती है । ८७. प्रासुक-स्थान ( फासुयं ग ) :
इसका प्रयोग ५.१.१६,८२ और ६६ में भी हुआ है । प्रस्तुत श्लोक में टीकाकार ने इसकी व्याख्या नहीं की है, किन्तु ८२वें श्लोक में प्रयुक्त 'फासुय' का अर्थ बीज आदि रहित और ६६वें श्लोक की व्याख्या में इसका अर्थ निर्जीव किया है । बौद्ध साहित्य में भी इसका इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है । जैन-साहित्य में प्रासुक स्थान, पान-भोजन आदि-आदि प्रयोग प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।
_ 'निर्जीव'---यह प्रासुक का व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ है । इसका प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ निर्दोष या विशुद्ध होता है।
श्लोक २०: ८८. श्लोक २०:
साधु कैसे घर में गोचरी के लिए जाये इसका वर्णन इस श्लोक में है। ८६. निम्न-द्वार वाले ( नीयदुवारं क ):
जिसका निर्गम-प्रवेश-मार्ग नीच-निम्न हो। वह घर या कोठा कुछ भी हो सकता है ।
निम्न द्वार वाले तथा अन्धकारपूर्ण कोठे का परिवर्जन क्यों किया जाए ? इसका आगम गत कारण अहिंसा की दृष्टि है । न देख पाने से प्राणियों की हिंसा संभव है । वहाँ ईर्या-समिति की शुद्धि नहीं रह पाती। दायकदोष होता है ।
श्लोक २१: १०. श्लोक २१:
मुनि कैसे घर में प्रवेश न करे इसका वर्णन इस श्लोक में है।
(ख) हा० टी० ५० १६७ : अस्य विषयो वृद्धसंप्रदायादवसेयः, स चायम्-पुवमेव साहुणा सन्नाकाइओवयोगं काऊण गोअरे
पविसिअन्वं, कहिवि ण कओ कए वा पुणो होज्जा ताहे वच्चमुत्तण धारेअव्वं, जओ मुत्तनिरोहे चक्खुवाघाओ भवति, वच्चनिरोहे जीविओवधाओ, असोहणा अ आयविराहणा, जओ भणिअं-'सव्वत्थ संजम'मित्यादि, अओ संघाडयस्स
सयभायणाणि समप्पिा पडिस्सए पाणयं गहाय सन्नाभूमीए विहिणा वोसिरिज्जा । वित्थरओ जहा ओहणिज्जुत्तीए । १---अ० चू० पृ० १०५ : मुत्तनिरोहे चक्खू वच्चनिरोहे य जीवियं चयति । उड्ढनिरोहे कोढं सुक्कनिरोहे भवे अपुमं ।। [ओ.नि.१५७] २-हा० टी० पृ० १७८ : 'प्रासुकं' बीजादिरहितम् । ३-हा० टी० ५० १८१ : प्रासुक' प्रगतासु निर्जीवमित्यर्थः । ४.- (क) महावग्गो ६.१.१ पृ० ३२८ : भिक्खू फासु विहरेय्यं ।
(ख) महावग्गो : फासुकं वस्सं वसेयाम । ५-(क) अ० चू० पृ० १०५ : णोयं दुवारं जस्स सो णीयदुवारो, तं पुण फलिहयं वा कोद्रुतो वा जओ भिक्खा नीणिज्जति ।
पलिहतदुवारे ओणतकस्स पडिमाए हिडमाणस्स खद्धवेउब्वियाति उड्डाहो। (ख) जि० चू० पृ० १७५ : णीयदुवारं दुविहं-वाउडियाए पिहियस्स वा।
(ग) हा० टी० ५० १६७ : 'नीचद्वारं'–नीचनिर्गमप्रवेशम् । ६-(क) अ० चू० पृ० १०५ : दायगस्स उक्खेवगमणाती ण सुज्झति । (ख) जि० चू० पृ० १७५ : जओ भिक्खा निक्कालिज्जइ तं तमसं, तत्य अचक्खुविसए पाणा दुक्खं पच्चुवेक्खिज्जंतित्ति काउं
नीयदुवारे तमसे कोट्टओ वज्जेयब्यो । (ग) हा० टी० ५० १६७ : ईर्याशुद्धिर्न भवतीत्यर्थः ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org