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________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २१७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १६ टि०८४-८६ ८४. किवाड़ न खोले ( कवाडं नो पणोल्लेज्जा" ) : आचाराङ्ग में बताया है-घर का द्वार यदि काँटेदार झाड़ी की डाल से ढंका हुआ हो तो गृह-स्वामी की अनुमति लिए बिना, प्रतिलेखन किए बिना, जीव-जन्तु देखे बिना, प्रमार्जन किए बिना, उसे खोलकर भीतर न जाए। भीतर से बाहर न आए। पहले गृहपति की आज्ञा लेकर, काँटे की डाल को देखकर (साफ कर) खोले, फिर भीतर जाए-आए' । इसमें किवाड़ का उल्लेख नहीं है। शाणी, प्रावार और कंटक-वोदिका (कांटों की डाली) से ढंके द्वार को आज्ञा लेकर खोलने के बारे में कोई मतभेद नहीं जान पड़ता । किवाड़ के बारे में दो परम्पराएँ हैं --एक के अनुसार गृहपति की अनुमति लेकर किवाड़ खोले जा सकते हैं। दूसरी के अनुसार गृहपति की अनुमति लेकर प्रावरण आदि हटाए जा सकते हैं, किन्तु किवाड़ नहीं खोले जा सकते। पहली परम्परा के अनुसार 'ओग्गहं सि अजाइया' यह शाणी, प्रावार और किवाड़ -इन तीनों से सम्बन्ध रखता है। दूसरी परम्परा के अनुसार उसका सम्बन्ध केवल 'शाणी' और 'प्रावार' से है, 'किवाड़' से नहीं । अगस्त्यसिंह स्थविर ने प्रावरण को हटाने में केवल व्यावहारिक असभ्यता का दोष माना है और किवाड़ खोलने में व्यावहारिक असभ्यता और जीव-वध-ये दोनों दोष माने हैं। हरिभद्र ने इसमें पूर्वोक्त दोष बतलाए हैं तथा जिनदास ने वे ही दोष विशेष रूप से बतलाए हैं जो बिना आज्ञा शाणी और प्रावार को हटाने से होते हैं। श्लोक १६: ८५. श्लोक १६: गोचरी के लिए जाने पर अगर मार्ग में मल-मूत्र की बाधा हो जाय तो मुनि क्या करे, इसकी विधि इस श्लोक में बताई गई है। ८६. मल-मूत्र की बाधा को न रखे ( वच्चमुत्तं न धारएल ): साधारण नियम यह है कि गोचरी जाते समय मुनि मल-मूत्र की बाधा से निवृत्त होकर जाए। प्रमादवश ऐसा न करने के कारण अथवा अकस्मात् पुनः बाधा हो जाए तो मुनि उस बाधा को न रोके । मूत्र के निरोध से चक्ष में रोग उत्पन्न हो जाता है... नेव-शक्ति क्षीण हो जाती है । मल की बाधा रोकने से तेज का नाश होता है, कभी-कभी जीवन खतरे में पड़ जाता है । वस्त्र आदि के बिगड़ जाने से अशोभनीय बात घटित हो जाती है । मल-मूत्र की बाधा उपस्थित होने पर साधु अपने पात्रादि दूसरे श्रमणों को देकर प्रासुक-स्थान की खोज करे और वहाँ मल-मूत्र की बाधा से निवृत्त हो जाए। जिनदास और वृद्ध-सम्प्रदाय की व्याख्या में विसर्जन की विस्तृत विधि को ओघनियुक्ति से जान लेने का निर्देश किया गया है। वहाँ इसका वर्णन ६२१-२२-२३-२४--इन चार श्लोकों में हुआ है । १--आ० चू० १।५४ : से भिक्खू वा भिक्खूणि वा गाहावइकुलस्स दुवारबाहं कंटकबोंदियाए पडिपिहियं पेहाए, तेसि पुवामेव उग्गहं अणणुन्नविय अपडिलेहिय अपमज्जिय नो अवंगुणिज्ज वा, पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा। तेसि पुवामेव उग्गहं अणुन्नविय पडिलेहिय-पडिलेहिय पमज्जिय-पमज्जिय तओ संजयामेव अवंगुणिज्ज वा, पविसेज्ज वा, णिक्खमेज्ज वा। २ --- अ० चू० पृ० १०४ : तहा कवाडं जो पणोलेज्जा, कवाडं दारप्पिहाणं तं ण पणोलेज्जा तत्थ त एव दोसा यंत्रे य सत्तवहो । ३-हा० टी० ५० १६७ : 'कपाटं' द्वारस्थगनं 'न प्रेरयेत्' नोद्घाटयेत्, पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । ४-- जि. चू० पृ० १७५ : कवाडं साहुणा णो पणोल्लेयव्वं, तत्थ पुत्वभणिया दोसा सविसेसयरा भवंति, एवं उग्गहं अजाइया पविसंतस्स एते दोसा भवंति।। ५- (क) जि० चू० पृ० १७५ : पुचि चेव साधुणा उवओगो कायक्वो, सण्णा वा काइया वा होज्जा णवत्ति वियाणिऊण पविसि यन्वं, जइ वावडयाए उवयोगो न कओ कएवि वा ओतिण्णस्स जाया होज्जा ताहे भिक्खायरियाए पविट्ठण वच्चमुत्तं न धारेयव्वं, कि कारणं ? मुत्तनिरोघे चक्खुवाघाओ भवति, वच्चनिरोहे य तेयं जीवियमवि रु धेज्जा, तम्हा वच्चम्मुत्तनिरोधो न कायव्वोत्ति, ताहे संघाडयस्स भायणाणि (दाऊण) पडिस्सयं आगच्छित्ता पाणयं गहाय सण्णाभूमि गंतूण फासुयमवगासे उग्गहमणुण्णावेऊण वोसिरियव्वंति । वित्थारो जहा ओहनिज्जुत्तीए । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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