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________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ध गृहपति की आज्ञा लिए बिना ( ओग्गहं से अजाइया ) : ८०. २१६ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) इलोक १८ टि०८०-८३ : यह पाठ दो स्थानों पर यहाँ और ६.१३ में है। पहले पाठ की टीका 'अवग्रहमयाचित्वा" और दूसरे पाठ की टीकाअब यस्य तत्समवावित्वा" है 'ओसि' को सप्तमी का एकवचन माना जाए तो इसका संस्कृत रूप 'अवग्रहे' बनेगा और यदि 'ओग्गहंस' ऐसा मानकर 'ओ हं' को द्वितीया का एकवचन तथा 'से' को षष्ठी का एकवचन माना जाए तो इसका संस्कृत रूप 'अवग्रहं तस्य' होगा । ८१. सन ( साणी) : 'शाणी' का अर्थ है – सन की छाल या अलसी का बना वस्त्र । ( पावार * ) : ८२. मृग-रोम के बने वस्त्र से कौटिल्य ने मृग के रोएँ से बनने वाले वस्त्र को प्रावरक कहा है । अगस्त्यचूर्णि में इसे सरोम वस्त्र माना हैं । चरक में स्वेदन के प्रकरण में प्रावार का उल्लेख हुआ है' । स्वेदन के लिए रोगी को चादर, कृष्ण मृग का चर्म, रेशमी चादर अथवा कम्बल आदि की विधि है । हरिभद्र ने इसे कम्बल का सूचक माना है । ८३. स्वयं न खोले ( अप्पणा नावपंगुरे ) : शाणी और प्रावार से आच्छादित द्वार को अपने हाथों से उद्घाटित न करे, न खोले । पूर्णिकार कहते हैं"हस्य शामी, प्रावार आदि से द्वार को ढांक विश्वस्त होकर पर में बैठते, खाते पीते और आराम करते हैं। उनकी अनुमति लिए बिना प्रावरण को हटा कोई अन्दर जाता है वह उन्हें अप्रिय लगता है और अविश्वास का कारण बनता है । वे सोचने लगते हैं यह बेचारा कितना दयनीय और लोकव्यवहार से अपरिचित है जो सामान्य उपचार को नहीं जानता। यों ही अनुमति लिए बिना प्रावरण को हटा अन्दर चला आता है" " ऐसे दोषों को ध्यान में रखते हुए मुनि चिक आदि को हटा अन्दर न जाए । १- हा० टी० प० : १६७ । २- हा० टी० प० : १६७ । ३ - ( क ) अ० चू० पृ० १०४ : सणो वक्कं पडी साणी । (ख) जि० चू० पृ० १७५ साणी नाम सणव+केहि विज्जइ अलसिमयी वा । (ग) हा० टी० प० १६६-६७ : शाणी अतसीबल्कजा पटी । ४- कौटि० अर्थ० : २.११.२६ । ५- अ० चू० पृ० १०४ कप्पासितो पडो सरोमो पावारतो । ६ - चरक० ( सूत्र स्था० ) १४.४६ : कौरवाजिनकौषेयप्रावाराद्यः सुसंवृतः । ७--- - हा० टी० प० १६७ : प्रावारः -- प्रतीतः कम्बल्याद्य ुपलक्षणमेतत् । ८ – (क) अ० चू० पृ० १०४ : तं सत्तं ण अवंगुरेज्ज । किं कारणं ? तत्थ खाण- पाण-सइरालाव- मोहणारम्भेहि अच्छंताणं अचियत्तं भवति तत एव मामकं लोगोववारविरहितमिति पांडेय जय जया भगति एते बद्दल्ला इव अग्लाह , रुभियव्वा । (ख) जि० चू० पृ० १७५ तं काउं ताणि गिहत्थाणि वीसत्थाणि अच्छंति, खायंति पियंति वा मोहंति वा, तं नो अपंगुरेज्जा, कि कारणं ? तेसि अत्तयं भव, जहा एते एसिल्लपि उक्यारं न याति जहा गावगुणियव्यं लोगसंयबहारबा हिरा वरागा, एवमादि दोसा भवंति । - हा० टी० [१०] १६७ अलौकिकत्वेन तदन्तर्गतभुजिक्रियाविकारिणां प्रद्वेषप्रसंगात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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