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________________ पिंडेसणा ( पिण्डषणा ) २१५ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १८ टि० ७६-७६ प्राचीन काल में प्रति क्रुट कुलों की पहचान इन बातों से होती थी—जिनका घर टूटी-फूटी बस्ती में होता, नगर के द्वार के पाम (बाहर या भीतर) होता और जिनके घर में कई विशेष प्रकार के वृक्ष होते वे कुल प्रतिकुष्प समझे जाते थे।' ७६. मामक ( गृह-स्वामी द्वारा प्रवेश निषिद्ध हो उस ) का ( मामगंज ) : जो गृहपति कहे--'मेरे यहाँ कोई न आये', उसके घर का । 'भिक्षु बुद्धि द्वारा मेरे घर के रहस्य को जान जायगा' आदि भावना से अथवा यह साधु अमुक धर्म का है ऐसे द्वेष या ईर्ष्या-भाव से ऐसा निषेध संभव है। निषिद्ध घर में जाने से भण्डनादि के प्रसङ्ग उपस्थित होते हैं अत: वहाँ जाने का निषेध है। ७७. अप्रीतिकर कुल में ( अचियत्तकुलं" ): किसी कारणवश गृहपति साधु को आने का निषेध न कर सके, किन्तु उसके जाने से गृहपति को अप्रेम उत्पन्न हो और उसके ( गृहपति के ) इंगित आकार से यह बात जान ली जाए तो वहाँ साधु न जाए । इसका दूसरा अर्थ यह भी है जिस घर में भिक्षा न मिले, कोरा आने-जाने का परिश्रम हो, वहाँ न जाए। यह निषेध, मुनि द्वारा किसी को संक्लेश उत्पन्न न हो इस दृष्टि से है। ७८. प्रीतिकर ( चियत्त ) : जिस घर में भिक्षा के लिए साधु का आना-जाना प्रिय हो अथवा जो घर त्याग-शील ( दान-शील ) हो उसे प्रीतिकर कहा जाता है। श्लोक १८: ७६. श्लोक १८: इस श्लोक में यह बताया गया है कि गोचरी के लिये निकला हुआ मुनि जब गृहस्थ के घर में प्रवेश करने को उन्मुख हो तब वह क्या न करे। १-ओ० नि० गा० ४३६ : पडिकुट ठकुलाणं पुण पंचविहा थूभिआ अभिन्नाणं । भग्गघरगोपुराई रुक्खा नाणाविहा चेव ॥ २ ---(क) अ० चू० पृ० १०४ : 'मामकं परिवज्जए' 'मा मम घरं पविसन्तु' त्ति मामकः सो पुणपंतयाए इस्सालुयत्ताए वा । (ख) जि० चू० १० १७४ : मामयं नाम जत्य गिहपती भणति --सा मम कोई घरमपिउ, पन्नतणेण मा कोई मम छिडडं लहिहेति, इस्सालुगदोसेण वा। (ग) हा० टी० ५० १६६ : 'मामक' यत्राऽऽह गृहपतिः—मा मम कश्चित् गृहमागच्छेत, एतद् वर्जयेत् भण्डनादिप्रसंगात् । ३-(क) अ० चू० पृ० १०४ : अच्चियत्तं अप्पितं, अणिट्ठो पवेसो जस्स सो अच्चियत्तो, तस्स जे कुलं तं न पविसे, अहवा ण चागो जत्थ पवत्तइ तं दाणपरिहीणं केवलं परिस्समकारी तं ण पविसे। (ख) जि० चू० पृ० १७४ : अचियत्तकुलं नाम न सक्केति वारेउ, अचियत्ता पुण पविसंता, तं च इगिएण णज्जति, जहा एयस्स साधुणो पविसंता अचियत्ता, अहवा अचियत्तकुलं जत्थ बहुणावि कालेण भिक्खा न लब्भइ, एतारिसेसु कुलेसु पविसंताणं पलिमंथो दोहा य भिक्खायरिया भवति । (ग) हा० टी० ५० १६६ : 'अचिअत्तकुलम्' अप्रीतिकुलं यत्र प्रविद्भिः साधुभिरप्रीतिरुत्पद्यते, न च निवारयन्ति, कुतश्चिन्नि मित्तान्तरात् एतदपि न प्रविशेत्, तत्सकलेशनिमित्तत्वप्रसंगात् । ४-(क) अ० चू० १० १०४ : चियत्तं इट्टणिक्खमणपवेसं चागसंपण्णं वा । (ख) जि. चू० पू०१७४ : चियत्तं नाम जत्थ चियत्तो निक्खमणपवेसो चागसील बा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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