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________________ बुडियावारका (क्षुल्लिकाचार-कथा) ५५ का प्रयोग किया है' । पिण्ड-निर्युक्ति और निशीथ भाष्य में इसके अनेक प्रकार बतलाये हैं । इसकी अनेक घटनाएं मिलती है। एक घटना इस प्रकार है बौद्ध भिक्षु अभिहृत लेते थे ' एक बार एक ब्राह्मण ने नये तिलों और नये मधु को बुद्ध सहित भिक्षु संघ को प्रदान करने के विचार से बुद्ध को भोजन के लिए निमन्त्रित किया । वह इन चीजों को देना भुल गया। बुद्ध और भिक्षु संघ वापस चले गए। जाने के थोड़ी ही देर बाद ब्राह्मण को अपनी भूल याद आई । उसको विचार आया 'क्यों न मैं नये तिलों और नये मधु को कुण्डों और घड़ों में भर आराम में ले चलूं ।' ऐसा ही कर उसने बुद्ध से कहा- 'भो गौतम ! जिनके लिए मैंने बुद्ध-सहित भिक्षु संघ को निमंत्रित किया था उन्हीं नये तिलों और नये मधु को देना में भूल गया। आप गौतम उन नये तिलों और मधु को स्वीकार करें।' बुद्ध ने कहा ''भिक्षुओं ! अनुमति देता है वहाँ से (गृहपति के घर से ) लाए हुए भोजन की पूर्ति हो जाने पर भी अतिरिक्त न हो तो उसका भोजन करने की ।" यह अभिहृत का अच्छा उदाहरण है। भगवान् महावीर ऐसे अभिहृत को हिंसायुक्त मानते थे और इसका लेना साधु के लिए अकल्प्य घोषित किया था । 'अगस्त्य पूर्णि' में 'णियागाऽभिहडाणि य' 'णियागं अभिहडाणि य' ये पाठान्तर मिलते हैं । यहाँ समास के कारण प्राकृत में बहुवचन के व्यवहार में कोई दोष नहीं है । औद्देशिक यावत् अभिहृत: औद्देशिक, क्रीतकृत, नियाग और अभिहृत का निषेध अनेक स्थलों पर आया है। इसी आगम में देखिए -- ५०१.५५; ६.४७-५०; ६.२३ । उत्तराध्ययन ( २०.४८) में भी इसका वर्जन है । 'सूत्रकृताङ्ग' में अनेक स्थलों पर इनका उल्लेख है । इस विषय में महावीर के समकालीन बुद्ध का अभिप्राय भी सम्पूर्णतः जान लेना आवश्यक है । हम यहाँ ऐसी घटना का उल्लेख करते हैं जो बड़ी ही मनोरंजक है और जिससे बौद्ध और जैन नियमों के विषय में एक तुलनात्मक प्रकाश पड़ता है । घटना इस प्रकार है : "निगंठ सिंह सेनापति बुद्ध के दर्शन के लिए गया । समझ कर उपासक बना। शास्ता के शासन में स्वतन्त्र हो तथागत से बोला : १ (क) ० ००११२ अभिदात बहु अभिनेता दरिसिता भवन्ति । (ख) हा० टी० १० ११६ बहुवचनं स्वग्रामवर ग्रामनिशीवादिभेदस्थापनार्थम् । (ग) अ० ० अहवा अभिसंपत्थं । २- पि०नि० ३२६-४६; नि० भा० १४८३.८८ : अभिहृत आचीर्ण निशीचाभ्याहृत अनाचीर्ण Jain Education International स्वग्राम नोनिशीथाभ्याहत I नोगृहान्तर जलपथ द्वारा परग्राम स्वदेश स्थलपथ द्वारा अध्ययन ३ : श्लोक २ टि० ११ नाव द्वारा ३ - विनय पिटक : महावग्ग ६.३.११ पु० २२८ से संक्षिप्त । ४ - दश० ६.४८ । I उडुप द्वारा जङ्घा द्वारा पाद द्वारा नाव द्वारा विदेश जलपथ द्वारा 1 For Private & Personal Use Only स्थलपथ द्वारा उडुप द्वारा जङ्घा द्वारा पाद द्वारा www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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