________________
दसवेलियं ( दशवैकालिक )
५४ अध्ययन ३ श्लोक २ टि० ११ आमन्त्रण या निमन्त्रण दिया जाता था। पुरोहितों के लिए निमन्त्रण को अस्वीकार करना दोष माना जाता था। बौद्ध श्रमण निमन्त्रण पाकर भोजन करने जाते थे । भगवान् महावीर ने निमन्त्रणपूर्वक भिक्षा लेने का निषेध किया । भाव्य, चूर्णि और टीकाकार ने 'नियाग' का अर्थ आमन्त्रण-पूर्वक दिया जानेवाला भोजन किया। उसका आधार 'भगवती' में मिलता है। वहाँ विशुद्ध भोजन का एक विशेषण 'अना'है' तिकार ने इसके तीन अर्थ किये है अनित्य-पिण्ड अनाहूत और अपर्यादित श्रीमद् जयाचार्य का अभिप्राय भी वृतिकार से भिन्न नहीं है । 'प्रश्नव्याकरण' ( संवर द्वार १ ) में भी इसी अर्थ में 'अणाहूय' शब्द प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार 'नियाग' और 'आहूत' का अर्थ एक ही है। नियाग का संस्कृत रूप 'निकाच' (निमंत्रण) भी हो सकता है ।
1
बौद्ध विनयपिटक में एक प्रसंग है जिससे 'नियाग' - नित्य आमन्त्रित का अर्थ स्पष्ट हो जाता है : "शाक्य महानाम के पास प्रचुर दवाइयाँ थीं। उसने बुद्धका अभिवादन कर कहा 'भन्ते ! मैं भिक्षु संघ को चार महीने के लिए दवाइयाँ ग्रहण करने के लिए निमंत्रित करना चाहता हूँ ।' बुद्ध ने निमन्त्रण की आज्ञा दी। पर भिक्षुओं ने उसके निमन्त्रण से दवाइयाँ नहीं लीं । बुद्ध ने कहा भिक्षुओ ! अनुमति देता हूं चार महीने तक दवाइयाँ ग्रहण करने के निमन्त्रण को स्वीकार करने की दवाइयाँ काफी बच गई। महानाम ने पुनः चार महीने के लिए दवा लेने का निमन्त्रण किया। बुद्ध ने कहा- 'भिक्षुओं! अनुमति देता है पुनः चार महीने के लिए निमन्त्रण को स्वीकार करने की दवाइयां फिर भी बच गई । महानाम ने जीवन भर दवाइयां लेने का निमन्त्रण स्वीकार करने की विनती की। बुद्ध ने कहा- 'भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ जीवन-भर दवाइयाँ ग्रहण करने के निमन्त्रण को स्वीकार करने की ।'
इससे स्पष्ट है कि बौद्ध भिक्षु स्थायी निमंत्रण पर एक ही घर से रोज-रोज दवाइयां ला सकते थे। भगवान् महावीर ने अपने भिक्षुओं के लिए ऐसा करना अनाचीर्णं बतलाया है ।
११. अभिहृत (अभिहाणि ष)
आगमों में जहाँ-जहाँ औद्देशिक, क्रीतकृत आदि का वर्णन है वहाँ अभिहृत का भी वर्णन है ।
|
अभिहृत का शाब्दिक अर्थ है- सम्मुख लाया हुआ । अनाचीर्ण के रूप में लिए गृहस्थ द्वारा अपने ग्राम, घर आदि से उसके अभिमुख लाई हुई वस्तु इसका बताया है कि कोई गृहस्थ भिक्षु के निमित्त तीन घरों के आगे से आहार लाये तो उसे लेने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है । तीन घरों की सीमा भी वही मान्य है जहाँ से दाता को देने की प्रवृत्ति देखी जा सकती हो। पिण्ड नियंक्ति में सौ हाथ या उससे कम हाथ की दूरी से लाया हुआ आहार आचीर्ण माना है । वह भी उस स्थिति में जबकि उस सीमा में तीन घरों से अधिक घर न हों । 'अभिहडाण' शब्द बहुवचन में है। वृणि और टीकाकार के अभिमत से अभिहृत के प्रकारों की सूचना देने के लिए ही बहुवचन
१०७.१.२००
कपमकारियमसंकयियमणायमकी
दि
२ उक्त सूत्र की टीका पृ०२९३ : न च विद्यते आहूतमाह्वानमामंत्रणं नित्यं मद्गृहे पोषमात्रमन्नं ग्राह्यमित्येवं रूपं कर्म्मकराद्याकारणं वा साध्यर्थं स्थानान्तरादन्नाद्यानयनाय यत्र सोनाहूतः अनित्यपिण्डोऽनभ्याहृतो वेत्यर्थः, स्पर्धा वा आहूतं तन्निषेधादनाहूतो दायकेनाsस्पर्धया दीयमानमित्यर्थः ।
ड
३ – भग० जो० ढाल ११४ गाथा ४३ : गृही कहै नित्य प्रति मुज घर वहिरोयं रे, ते नित्य पिंड न लेवं मुनिराय रे । अथवा साहमो आण्यो लेवें नहीं रे, ए अणाहूयं नो अर्थ कहाय रे ॥ 4- Sacred Books of the Buddhists Vol XI. Book of the Discipline Part II pp. 368-373.
५ (क) अ० चू० पृ० ६०: अभिहडं जं अभिमुहामाणीतं उवस्सए आऊण दिण्णं ।
(ख) जि०
(ग) हा० डी० प० ११६ स्वप्रमादेः साधुनिमितमभिमुखमानीतमध्याहृतम् ।
१० चू० पृ० ११२ ।
Jain Education International
इसका अर्थ है - साधु के निमित्त उसको देने के प्रवृत्ति लभ्य अर्थ निशीथ में मिलता है । वहाँ
६ - नि ३.१५ : जे भिक्खु गाहावइ- कुलं पिण्डवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे परं ति घरंतराओ असणं वा पाणं वा खाइमं साइमं वा अभिहडं आहट्टु दिज्जमाणं पडिग्गाहेति पडिग्गार्हतं वा सातिज्जति ।
७ -- पि० नि० ३.४४ : आइन्नमि ( ३ ) तिगिहा ते चिय उवओगपुव्वागा ।
८ - पि० नि० ३.४४ : हत्थसय खलु देसो आरेणं होई देसदेसोय ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org