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खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा )
अध्ययन ३: श्लोक २ टि० १० शब्द है । जबकि निशीथ में इसके लिए 'णितिय-अग्गपिंड' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है । निशीथ-भाष्य (१००७) की चुणि में 'णितियअम्गपिंड' के स्थान में 'णीयग्ग' शब्द का प्रयोग हुआ है। यहाँ 'णीयग्ग' शब्द विशेष मननीय है। इसका संस्कृत-रूप होगा 'नित्याग्र' । 'नित्याग्र' का प्राकृत-रूप 'णितिय-अन्ग' और 'णीयग्ग' दोनों हो सकते हैं । सम्भवत: नियाग' शब्द 'णीयग्ग' का ही परिवर्तित रूप है। इस प्रकार 'णियग्ग' और 'णितिय-अग्ग' के रूप में 'दशवैकालिक' और 'निशीथ' का शाब्दिक-भेद भी मिट जाता है।
कुछ आचार्य 'नियाग' का संस्कृत-रूप 'नित्याक' या 'नित्य' करते हैं, किन्तु उक्त प्रमाणों के आधार पर इसका संस्कृत-रूप 'नित्याग्र' होना चाहिए। निशीथ चूर्णिकार ने 'नित्याग्र पिंड' के अर्थ में निमन्त्रणादि-पिंड और निकाचना-पिंड का प्रयोग किया है । इनके अनुसार 'नित्याग्र' का अर्थ नियमित रूप से ग्राह्य भोजन या निमन्त्रण-पूर्वक ग्राह्य भोजन होता है।
__ 'नियाग' नित्याग्रपिण्ड का संक्षिप्त रूप है। 'पिंड' का अर्थ अग्र में ही अन्तर्निहित किया गया है । यहाँ 'अग्र' का अर्थ अपरिभुक्त, प्रधान अथवा प्रथम हो सकता है।
‘णितिय-अग्ग' का नियाग' के रूप में परिवर्तन इस क्रम से हुआ होगा—णितिय-अग्ग=णि इय-अग्ग=णीय-अग्ग=णीयग्ग= णियग्ग=णियाग।
इसका दूसरा विकल्प यह है कि नियाग' का संस्कृत-रूप नियाग' ही माना जाए । 'यज्' का एक अर्थ दान है। जहाँ दान निश्चित हो वह घर 'नियाग' है।
बौद्ध-साहित्य में 'अग्ग' शब्द का घर के अर्थ में प्रयोग हुआ है। इस दृष्टि से 'नित्याग्र' का अर्थ 'नित्य-गृह' (नियत घर से भिक्षा लेना) भी किया जा सकता है । 'अग्र' का अर्थ प्रथम मानकर इसका अर्थ किया जाए तो जहाँ नित्य (नियमतः) अग्र-पिण्ड दिया जाए वहाँ भिक्षा लेना अनाचार है-यह भी हो सकता है।
'आचाराङ्ग' में कहा है-जिन कुलों में नित्य-पिण्ड, नित्य अग्र-पिण्ड, नित्य-भाग, नित्य-अपार्ध-भाग दिया जाए वहाँ मुनि भिक्षा के लिए न जाए। इससे जान पड़ता है कि उस समय अनेक कुलों में प्रतिदिन नियत-रूप से भोजन देने का प्रचलन था जो नित्य-पिण्ड कहलाता था और कुछ कुलों में प्रति दिन के भोजन का कुछ अंश ब्राह्मण या पुरोहित के लिए अलग रखा जाता था, वह अग्र-पिण्ड, अग्रासन, अग्र-कूर और अनाहार कहलाता था । नित्य-दान वाले कुलों में प्रतिदिन बहुत याचक नियत-भोजन पाने के लिए आते रहते थे। उन्हें पूर्ण-पोष, अर्ध-पोष या चतुर्थांश-पोष दिया जाता था । नित्यान-पिण्ड और नित्य-पिण्ड से वस्तु के अंतर की सूचना मिलती है। जो श्रेष्ठ आहार निमन्त्रण पूर्वक नित्य दिया जाता था उसके लिए 'नित्याग्र-पिण्ड' और जो साधारण भोजन नित्य दिया जाता था उसके लिए 'नित्य-पिण्ड' का प्रयोग हआ होगा ।
पाणिनि ने प्रतिदिन नियमित-रूप से दिए जाने वाले भोजन को नियुक्त-भोजन' कहा है । इसके अनुसार जिस व्यक्ति को पहले नियमित रूप से भोजन दिया जाए वह 'आग्रभोजनिक' कहलाता है। इस सूत्र में पाणिनि ने 'अग्र-पिण्ड' की सामाजिक परम्परा के अनुसार व्यक्तियों के नामकरण का निर्देश किया है । साधारण याचक स्वयं नियत भोजन लेने चले जाते थे । ब्राह्मण, पुरोहित और श्रमणों को
१-नि० भा० १००७ : ताहे णीयग्गापडं गेहति । २---उत्तराध्ययन २०.४७ को बृहद्वृत्ति । ३-नि० भा० १००५ चू० : तस्मान्निमन्त्रणादि-पिण्डो वय: ।
नि० भा० १००६ चू० : कारणे पुण णिकायणा-पिडं गेण्हेज्ज । ४-जी० ००। ५--नि० चू० २.३२ : 'अग्रं' वरं प्रधान। ६-निश्चितो नियतो यागो दानं यत्र तन्नियागम् । ७-खुग्ग-क्षौर-गृह । ८- आ० चू० १.१६ : इमेसु खलु कुलेसु णितिए पिंडे दिज्जइ, णितिए अग्गपिंडे दिज्जइ, णितिए भाए दिज्जइ, णितिए अवड्ढभाए
दिज्जइ-तहप्पगाराई कुलाई णितियाई णिति उमाणाई णो भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज्ज वा निक्खमेज्ज वा। ६-आ० चू० १.१६ वृ : शाल्योदनादे : प्रथममुद्धृत्य भिक्षार्थ व्यवस्थाप्यते सोऽग्रपिण्डः । १०-आ० चू० १.१६ : तहप्पगाराई कुलाई णितियाई णितिउमाणाई । ११-आ० चू० १.१६ । १२-पाणिनि अष्टाध्यायी ४.४.४६ : तदस्मै दीयते नियुक्तम् ।
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