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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ५२ अध्ययन ३ : श्लोक २ टि० १० आचार्य भिक्षु ने 'नियाग' का अर्थ नित्यपिंड - प्रतिदिन एक घर का आहार लेना किया है' । घूर्णिकार और टीकाकार के समय तक 'नियाग' शब्द का अर्थ यह नहीं हुआ । अववरिकार ने टीकाकार का ही अनुसरण किया है। दीपिकाकार इसका अर्थ 'आमन्त्रितपिंड का ग्रहण करते हैं, नित्य, शब्द का प्रयोग नहीं करते' स्तबकों (वों में भी यही अर्थ रहा है की यह परम्परा छूटकर 'एक घर का आहार सदा नहीं लेना' यह परम्परा कब चली, इसका मूल 'नित्य - पिंड' शब्द है । स्थानकवासी संप्रदाय में सम्भवतः 'नित्य - पिंड' का उक्त अर्थ ही प्रचलित था । निशीथ भाष्यकार ने एक प्रश्न खड़ा किया— जो भोजन प्रतिदिन गृहस्थ अपने लिए बनाता है, उसके लिए यदि निमन्त्रण दिया जाय तो उसमें कौन-सा दोष है ? इसका समाधान उन्होंने इन शब्दों में किया-निमन्त्रण में अवश्य देने की बात होती है इसलिए वहाँ स्थापना, आधाकर्म, क्रीत, प्रामित्य आदि दोषों की सम्भावना है। इसलिए स्वाभाविक भोजन भी निमन्त्रणपूर्वक नहीं लेना चाहिए । आचार्य भिक्षु को भी प्रतिदिन एक घर का आहार लेने में कोई मौलिक दोष प्रतीत नहीं हुआ । उन्होंने कहा इसका निषेध शिथिलतानिवारण के लिए किया गया है। 'दशवेकालिक' में जो अनाचार गिनाये हैं उनका प्रायश्चित्त निशीथ सूत्र में बतलाया गया है। वहां 'नियाग' के स्थान में 'णितियं अग्गपिंड' ऐसा पाठ है। वर्णिकार ने 'णितिय' का अर्थ शाश्वत और 'अग्र' का अर्थ प्रधान किया है तथा वैकल्पिक रूप में 'अग्रपिण्ड' का अर्थ प्रथम बार दिये जाने वाला भोजन किया है" । 1 भाव्यकार ने 'णितिय - अग्गपिंड' के कल्पाकल्प के लिए चार विकल्प उपस्थित किये हैं--निमन्त्रण, प्रेरणा, परिमाण और स्वाभाविक । गृहस्थ साधु को निमन्त्रण देता है-भगवन् ! आप मेरे घर आएँ और भोजन लें - यह निमन्त्रण है । साधु कहता है - मैं अनुपहतो मुझे क्या देगा ? गृहस्थ कहता है-जो आपको चाहिए वही दूंगा साधु कहता है-घर पर चले जाने पर तू देगा या नहीं ? गृहस्थ कहता है – दूंगा । यह प्रेरणा या उत्पीड़न है । इसके बाद साधु कहता है तू कितना देगा और कितने समय तक देगा ? यह परिमाण है । ये तीनों विकल्प जहाँ किए जायें वह 'णितिय - पिंड' साधु के लिए अग्राह्य है । और जहाँ ये तीनों विकल्प न हों, गृहस्थ के अपने लिए बना हुआ सहज-भोजन हो और साधु सहज भाव से भिक्षा के लिए चला जाये, वैसी स्थिति में 'जितिया नहीं है इसके अगले चार सूत्रों में क्रमशः नित्य-पिंड, नित्य अपार्ध, नित्य-भाग और नित्य - अपार्ध भाग का भोग करने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है"। इनका निषेध भी निमन्त्रण आदि पूर्वक नित्य भिक्षा ग्रहण के प्रसंग में किया गया है। निशीथ का यह अर्थ 'दशवेकालिक' के अर्थ से भिन्न नहीं है । शब्द-भेद अवश्य है। 'दशवेकालिक' में इस अर्थ का वाचक 'नियाग' १ (क) भिक्षु प्रन्य० (प्र० ब०) पृ० ७८२ आरी चौ० १.११ नितको बहरे एकण घर को, व्यारां में एक आहार जी। दसवेकालक तीजा में कह्यो, साधु ने अणाचार जी ।। (ख) भिक्षु ग्रन्थ० ( प्र० ख० ) पृ० ८६०-६१ : २६.३२ – ४५ । २ - दश० ३.२ अव० : नित्यं निमन्त्रितस्य पिण्डम् – नित्य पिण्डकम् । ३ - दी० ३.२ : आमन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणम् । ४- नि० भा० १००३ । ५- नि० भा० १००४-६ । ६-आधाकर्मी ने मोल लोपो ओतो निश्चय उचा पण निपंड तो ढीला पडता जाणने वरज्यो आ तो तीर्थकरा री बुद्ध ॥ ७- नि० २.३१ : जे भिक्खू णितियं अग्गपिंडं भुंजइ भुंजतं वा सातिज्जति । ८- नि० २.३१ : काभाष्य णितियं— धुवं सासयमित्यर्थः, अग्रं वरं प्रधानं अहवा जं पढमं दिज्जति सो पुण भत्तट्ठो वा -- --- भिक्खाए वा होज्जा । ६- नि० भा० १०००-१००२ १० नि० २.३२-३५ Jain Education International नितियपि भुजति भुतं वा सातिम्मति । जे भिक्खू नितियं अवड्ढ भुंजति, भुजतं वा सातिज्ञ्जति । विभाग जति भूत वा सातिजति । जे भिक्खू नितिय अवड्ढभागं भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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