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खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा) ५१
अध्ययन ३ : श्लोक २ टि० -१० बौद्ध भिक्षु उद्दिष्ट खाते थे । इस सम्बन्ध में अनेक घटनाएँ प्राप्त हैं। उनमें से एक यह है :
बुद्ध वाराणसी से बिहार कर साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के महान् भिक्षु-संघ के साथ अंधविंद की ओर चारिका के लिए चले। उस समय जनपद के लोग बहुत-सा नमक, तेल, तन्दुल और खाने की चीजें गाड़ियों पर रख 'जब हमारी बारी आएगी तब भोजन करायेंगे' ---सोच बुद्ध सहित भिक्षु-संघ के पीछे-पीछे चलते थे । बुद्ध अंधविंद पहुँचे। एक ब्राह्मण को बारी न मिलने से ऐसा हुआ'पीछे-पीछे चलते हुए दो महीने से अधिक हो गए बारी नहीं मिल रही है । मैं अकेला हूँ, मेरे घर के बहुत से काम की हानि हो रही है। क्यों न मैं भोजन परसने को देखू ? जो परसने में न हो उसको मैं दूं।' ब्राह्मण ने भोजन में यवागू और लड्डू को न देखा । तब ब्राह्मण आनन्द के पास गया और बोला : --'तो आनन्द ! भोजन में यवागू और लड्डू मैंने नहीं देखा। यदि मैं यवागू और लड्डू को तैयार कराऊँ तो क्या आप गौतम उसे स्वीकार करेंगे?' 'ब्राह्मण ! मैं इसे भगवान से पूछेगा।' आनन्द ने सभी बातें बुद्ध से कहीं। बुद्ध ने कहा 'तो आनन्द ! वह ब्राह्मण तैयार करे ।' आनन्द ने कहा --- 'तो ब्राह्मण तैयार करो।' ब्राह्मण दूसरे दिन बहुत-सा यवागू और लड्डू तैयार करा बुद्ध के पास लाया । बुद्ध और सारे संघ ने उन्हें ग्रहण किया ।
इस घटना से स्पष्ट है कि बौद्ध साधु अपने उद्देश्य से बनाया खाते थे और अपने लिए बनवा भी लेते थे। ६. क्रीतकृत (कीयगडं क ) :
चुणि के अनुसार जो दूसरे से खरीदकर दी जाय वह वस्तु 'क्रीतकृत' कहलाती है । टीका के अनुसार जो साधु के लिए क्रय की गई हो-खरीदी गई हो वह क्रीत और जो उससे निर्वतित है—कृत है-बनी हुई है-बहू क्रोतकृत है। इस शब्द के अर्थ--- साधु के निमित्त खरीद की हुई वस्तु अथवा साधु के निमित्त खरीद की हुई वस्तु से बनाई हुई वस्तु-दोनों होते हैं। क्रीतकृत का वर्जन भी हिंसा-परिहार की दृष्टि से ही है। इस अनाचीर्ण का विस्तृत वर्णन आचार्य भिक्षु कृत साधु-आचार की ढालों में मिलता है । आगमों में जहाँ-जहाँ औद्देशिक का वर्जन है वहाँ-वहाँ प्रायः सर्वत्र ही क्रीतकृत का वर्जन जुड़ा हुआ है। बौद्ध भिक्षु क्रीतकृत लेते थे। उसकी अनेक घटनाएँ मिलती हैं। १०. नित्यान ( नियागं ख ) :
जहाँ-जहाँ औद्द शिक का वजन है वहाँ-वहाँ 'नियाग' का भी वर्जन है।
आगमों में 'नियाग' शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर हुआ है। 'नियागट्ठी' और 'नियाग-पडिवण्ण' ये भिक्षु के विशेषण हैं। 'उत्तराध्ययन', 'आचाराङ्ग' और 'सूत्रकृताङ्ग' में व्याख्याकारों ने 'नियाग' का अर्थ मोक्ष, संयम या मोक्ष-मार्ग किया है।
अनाचार के प्रकरण में नियाग' तीसरा अनाचार है। छठे अध्याय के ४६ वें श्लोक में भी इसका उल्लेख हुआ है। दोनों चूणिकार छठे अध्ययन में प्रयुक्त नियाग' शब्द के अर्थ की जानकारी के लिए तीसरे अध्ययन की ओर संकेत करते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में उन्होंने नियाग' का अर्थ इस प्रकार किया है - आदर पूर्वक निमन्त्रित होकर किसी एक घर से प्रतिदिन भिक्षा लेना नियाग', 'नियतता' या 'निबन्ध' नाम का अनाचार है। सहज भाव से, निमन्त्रण के बिना प्रतिदिन किसी घर की भिक्षा लेना 'नियाग' नहीं है । टीकाकार ने दोनों स्थलों पर नियाग' का जो अर्थ किया है वह चूर्णिकारों के अभिमत से भिन्न नहीं है ।
१-विनयपिटक महावग्ग ६.४.३ पृ० २३४ से संक्षिप्त । २-(क) अ० चू० : कोतकडं जं किणिऊण दिज्जति ।
(ख) जि० चू० पृ० १११ : अन्यसत्कं यत्तुं दीयते क्रीतकृतम् । ३-हा० टी० १० ११६ : क्रयण -क्रीतं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते, तेन कृत–निर्वतित क्रीतकृतम् । ४-भिक्षु-ग्रन्थ (प्र० ख०) पृ० ८८६.६० आचार री चौपाई : २६.२४-३१ । ५-- (क) अ० चू० पृ०६० : नियागं—प्रतिणियतं जं निब्बंधकरणं, ण तु जं अहासमावतीए दिणे दिणे भिक्खागहणं । (ख) जि० चू० पृ० १११,११२: नियागं नाम निययत्ति वुत्तं भवति, तं तु यदा आयरेण आमंतिओ भवइ जहा 'भगवं !
तुभेहिं मम दिणे दिणे अणुग्गहो कायब्बो' तदा तस्स अब्भुवगच्छंतस्स नियागं भवति, ण तु जत्थ अहाभावेण दिणे दिणे
भिक्खा लब्भइ। ६-(क) हा० टी० ५० ११६ : 'नियाग' मित्यामन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं नित्यं न तु अनामन्त्रितस्य ।
(ख) दश० ६.४८ हा० टी० ५० २०३ : 'नियागं' ति–नित्यमामन्त्रितं पिण्डम् ।
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