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विणयसमाही ( विनय-समाधि)
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अध्ययन ह (च०उ०) : श्लोक ७ टि० २८-३१
श्लोक ७: २८. जन्म-मरण से (जाइमरणाओ):
अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसके दो अर्थ किए हैं-जन्म-मृत्यु और संसार' । जिनदास और हरिभद्र ने जाति-मरण का अर्थ संसार किया है। २६. नरक आदि अवस्थाओं को (इत्थंथं) :
इत्थं का अर्थ है-इस प्रकार । जो इस प्रकार स्थित हो—जिसके लिए 'यह ऐसा है'-इस प्रकार का व्यपदेश किया जाए उसे 'इत्थंस्थ' कहा जाता है। नरक, तिर्यज, मनुष्य और देव-ये चार गतियाँ, शरीर, वर्ण, संस्थान आदि जीवों के व्यपदेश के हेतु हैं। इत्थंस्थ को त्याग देता है अर्थात् उक्त हेतुओं के द्वारा होने वाले अमुक-अमुक प्रकार के निश्चित रूपों को त्याग देता है । अगस्त्य चूणि में 'इत्थत्त' ऐसा पाठ है। उसका अर्थ है-इस प्रकार की अवस्था का भाव । ३०. अल्प कर्म वाला (अप्परए) :
इसका संस्कृत रूप है- 'अल्परजाः' और इसका अर्थ है-थोड़े कर्म वाला। टीकाकार ने इसका संस्कृत रूप 'अल्परतः' देकर इसका अर्थ 'अल्प आसक्ति वाला' किया है। ३१. महद्धिक देव (महिड्ढिए) :
महान् ऋद्धि वाला, अनुत्तर आदि विमानों में उत्पन्न ।
१-अ० चू० : जाती समुष्पत्ती, देहपरिच्चागो मरणं अहवा जातीमरणं संसारो। २-(क) जि. चू० पृ० ३२६ : जातीमरणं संसारो।
(ख) हा० टी०प० २५८ : 'जातिमरणात्' संसारात् । ३-(क) हा० टी०प० २५८ : इदं प्रकारमापन्नमित्थम् इत्थं स्थितमित्थंस्थं नारकादिव्यपदेशबीजं वर्णसंस्थानादि ।
(ख) जि० चू० पृ० ३२६ : 'इत्थत्यं' णाम जेण भण्णइ एस नरो वा तिरिओ मणुस्सो देवो वा एवमादि । ४-अ० चू० : अयं प्रकार इत्थं -- तस्स भावो इत्थंत्तं । ५- (क) अ० चू० : अप्परते अप्पकम्मावसेसे ।
(ख) जि० चू०१० ३२६ : थोवावसेसेसु कम्मत्तणेण । ६-हा० टी० प० २५८ : 'अल्परतः' कण्डूपरिगतकण्डूयनकल्परतरहितः । ७- हा० टी० प० २५८ : 'महद्धिकः'-अनुत्तरवैमानिकादि ।
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