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दसवेआलियं ( दशवकालिक)
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अध्ययन ६ (च० उ०) : सूत्र ७ टि० २२-२७.
सूत्र ७: २२. आर्हत-हेतु के (आरहंतेहि हेऊहिं) :
___ आहेत-हेतु-अर्हन्तों के द्वारा मोक्ष-साधना के लिए उपदिष्ट या आचीर्ण हेतु । वे दो हैं--संवर और निर्जरा' । २२. जिनवचन (जिण वयण ) :
इसका अर्थ जिनमत या आगम है। २४. जो सूत्रार्थ से प्रतिपूर्ण होता है (पडिपुण्णाययं) :
अगस्त्यसिंह ने इसका अर्थ 'पूर्ण भविष्यत्काल' किया है। जिनदास और हरिभद्र ने 'पडिपुण्ण' का अर्थ सूत्रार्थ से प्रतिपूर्ण ओर 'आययं' का अर्थ 'अत्यन्त' किया है।
२५. इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला (दंते) :
इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय का दमन करने वाला 'दान्त' कहलाता है।
२६. (भावसंधए):
मोक्ष को निकट करने वाला।
श्लोक ६:
२७. जानकर (अभिगम) :
टीका के अनुसार यह पूर्वकालिक क्रिया का रूप है । 'अभिगम्य' के 'य' का लोप होने पर 'अभिगम्म' ऐसा होना चाहिए। किन्तु प्राप्त सभी प्रतियों में 'अभिगम' ऐसा पाठ मिलता है। इसलिए लिखित आधार के अभाव में इसी को स्थान दिया गया है।
१-(क) अ० चू० : जे अरहंतेहि अणासवत्तकमनिज्जरणादयो गुणा भणिता आयिण्णा वा ते आरहंतिया हेतवो कारणाणि ।
(ख) जि० चू० पृ०३२८ : जे आरहंतेहि अणासवत्तणकम्मणिज्जरणमादि मोक्खहेतवो भणिता आचिन्ना वा ते आरहतिए हेऊ ।
(ग) हा० टी० प० २५८ : 'आर्हते.' अर्हत्संबन्धिभिर्हेतुभिरनाश्रवत्वादिभिः । २-(क) अ० चू० : जिणाणं वयणं जिणवयण मत ।
(ख) हा० टी० ५० २५८ : 'जिनवचनरत' आगमे सक्तः । ३-अ० चू० : पडिपुण्ण आयत आगामिकालं सत्व आगामिणं कालं पडिपुण्णायतं । ४-(क) जि० चू० पृ० ३२६ : पडिपुन्नं नाम पडिपुन्नंति वा निरवसेसंति वा एगट्ठा, सुत्तत्थेहि पडिपुण्णो, आयया अच्चत्थं ।
(ख) हा० टी० प० २५८ : प्रतिपूर्णः सूत्रादिना, आयतम् -अत्यन्तम् । ५-(क) अ० चू० : इंदियं णोइ दियदमेण दंते।
(ख) जि० चू० पृ० ३२६ : दंते दुविहे-इदिएहि य नोइंदिएहि य ।
(ग) हा० टी०प० २५८ : दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्याम् । ६--(क) जि. चू० प० ३२६ : भावो मोक्खो तं दूरस्थमप्पणा सह संबंधए।
(ख) हा० टी० ५० ३५८ : 'भावसंधकः' भावो-मोक्षस्तत्संधक आत्मनो मोक्षासन्नकारी। ७-हा० टी०प० २५८ : 'अभिगम्य' विज्ञायासेव्व च ।
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