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विणयसमाही (विनय-समाधि)
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अध्ययन ६ (च०उ०) : सूत्र ६ टि० १७-२०
सूत्र ६:
१७. इहलोक के निमित्त परलोक के निमित्त (इहलोगट्टयाए परलोगट्ठयाए):
उत्तराध्ययन में कहा है-धर्म करने वाला इहलोक और परलोक दोनों की आराधना कर लेता है और यहाँ बतलाया है कि इहलोक और परलोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। इनमें कुछ विरोधाभास जैसा लगता है । पर इसी सूत्र के श्लोकगत 'निरासए' शब्द की ओर जब हम दृष्टि डालते हैं तो इनमें कोई विरोध नहीं दीखता। इहलोक और परलोक के लिए जो तप का निषेध है उसका सम्बन्ध पौद्गलिक सुख की आशा से है । तप करने वाले को निराश (पौद्गलिक सुखरूप प्रतिफल की कामना से रहित होकर) तप करना चाहिए । तपस्या का उद्देश्य ऐहिक या पारलौकिक भौतिक सुख-समृद्धि नहीं होना चाहिए । जो प्रतिफल की कामना किए बिना तप करता है उसका इहलोक भी पवित्र होता है और परलोक भी। इस तरह वह दोनों लोकों की आराधना कर लेता है। १८. कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक (कित्तिवण्णसद्दसिलोग):
अगस्त्यसिंह स्थविर इन चार शब्दों के अलग-अलग अर्थ करते हैं : कीति-दूसरों के द्वारा गुण कीर्तन । वर्ण-लोकव्यापी यश। शब्द-लोक-प्रसिद्धि। श्लोक- ख्याति ।
हरिभद्र के अर्थ इनसे भिन्न हैं। सर्व दिग्व्यापी प्रशंसा कीति, एक दिग्व्यापी प्रशंसा वर्ण, अर्द्ध दिग्व्यापी प्रशंसा शब्द और स्थानीय प्रशंसा श्लोक' ।
जिनदास महत्तर ने चारों शब्दों को एकार्थक माना है । १. निर्जरा के (निजरठ्ठयाए):
निर्जरा नव-तत्त्वों में एक तत्त्व है। मोक्ष के ये दो साधन हैं -संवर और निर्जरा । संवर के द्वारा अनागत कर्म-परमाणुओं का निरोध और निर्जरा के द्वारा पूर्व-संचित कर्म-परमाणुओं का विनाश होता है। कर्म-परमाणुओं के विनाश और उससे निष्पन्न आत्मशुद्धि-इन दोनों को निर्जरा कहा जाता है। भगवान् ने कहा- 'केवल आत्म-शुद्धि के लिए तप करना चाहिए।' यह वचन उन सब मतवादों के साथ अपनी असहमति प्रगट करता है जो स्वर्ग या ऐहिक एवं पारलौकिक सुख-सुविधा के लिए धर्म करने का विधान करते थे, जैसे-'स्व कामोग्नि यथा यजेत्' आदि । २०. अतिरिक्त (अन्नत्थ) :
अतिरिक्त, छोड़कर, वर्जकर । देखिए अ०४ स०८ का टित्पण । २१. (निरासए):
पौद्गलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित ।
१-उत्त० ८.२० : इह एस धम्मे अक्खाए, कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं।
तरिहिति जे उ काहिति, तेहि आराहिया दुवे लोग ।। २-अ० चू० : परेहि गुणसंसद्दणं कित्ती, लोकव्यापी जसो वण्णो, लोके विदितया सद्दे, परेहि पर (य) णं सिलोगो। ३–हा० टी० ५० २५७ : सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः, एकदिग्व्यापी वर्णः, अर्द्ध दिग्व्यापी शब्द, तत्स्थान एव श्लाघा । ४-जि० चू० पृ० ३२८ : कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठया एगट्ठा । ५.--जैन० सि० ५.१३.१५ । ६–जि. चू० पृ० ३२८ : अन्नत्थसद्दो परिवज्जणे वट्टइ । ७-(क) जि० चू० पृ० ३२८ : निग्गता आसा अप्पसस्था जस्स सो निरासए।
(ख) हा० टी०प० २५७ : 'निराशो' निष्प्रत्याश इहलोकादिषु ।
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