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________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १०८ अध्ययन ४ : सूत्र १२-१३ १२--भन्ते ! इसके पश्चात् दूसरे महाव्रत में मृपावाद की विरति होती है। १२-अहावरे दोच्चे भंते ! महव्वए मुसावायानो वेरमणं । अथापरे द्वितीये भदन्त ! महाव्रते मृषावादाद्विरमणम् । सव्वं भंते ! मुसावायं पच्च- सर्व भदन्त ! मृषावादं प्रत्याख्यामि-- भन्ते ! मैं सर्व मृषावाद का प्रत्या ख्यान करता हूँ। क्रोध से या लोभ से,५१ भय वखामि-से कोहा वा लोहा वा भया वा अथ क्रोधाद्वा लोभादा भयादा हासाद्वा ... से या हँसी से, मैं स्वयं असत्य नहीं वोलूंगा, हासा वा, नेव सयं मुसं वएज्जा नेवन्नेहिं नैव स्वयं मृषा वदामि नैवान्यम वा बाद- दूसरों से असत्य नहीं बुलवाऊँगा और मसं वायावेज्जा मसं वयंते वि अन्ने यामि मृषा वदतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि असत्य बोलने वालों का अनुमोदन भी नहीं न समणजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं यावज्जीव त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा करूँगा, यावज्जीवन के लिए, तीन करण तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्य तीन योग से---मन से, वचन से, काया से --- न करूँगा, न कराऊँगा और करने वाले का करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं । ____ न समनुजानामि । अनुमोदन भी नहीं करूंगा। न समणुजाणामि । तस्स भंते! पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । तस्य भदन्त ! प्रतिकामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि। भन्ते! मैं अतीत के मृपावाद से निवृत्त होता हूँ, उसकी निंदा करता हूँ, गहरे करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। दोच्चे भंते ! महव्वए उठ्ठि- द्वितीये भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि ओमि सब्वाओ मुसावायाओ वेरमणं। सर्वस्माद् मृषावादाद्विरमणम् ॥१२॥ भन्ते ! मैं दूसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व मृपावाद की विरति होती है। १३-अहावरे तच्चे भंते ! अथापरे तृतीये भदन्त ! महावते महब्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं । अदत्तादानाद्विरमणम । १३–भंते! इसके पश्चात् तीसरे महावत में अदत्तादान५२ की विरति होती है। सव्वं भंते ! अदिन्नादाणं पच्च- सर्व भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि- भंते ! मैं सर्व अदत्तादान का प्रत्याख्यान क्खामि से गामे वा नगरे वा रणे अथ ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा अल्पं वा करता हूँ। गाँव में, नगर में या अरण्य वा अप्पं वा बहुं वा अणु वा थूलं वा बहु वा अणु वा स्थूल वा बहु वा अणु वा स्थूलं वा चित्तबद्वा में५३ कहीं भी अल्प या बहुत,५४ सूक्ष्म या चित्तमंतं वा अचित्त मंतं वा, नेव सयं अचित्तवद्वा ..नव स्वयमदत्तं गलामि, स्थूल,१५ सचित्त या अचित्तथ किसी भी नवान्यरदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गलतो- अदत्त-वस्तु का मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, अदिन्नं गेण्हेज्जा नेवन्नेहि अदिन्नं ऽप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवं दूसरों से अदत्त-वस्तु का ग्रहण नहीं कराऊँगा गेण्हावेज्जा अदिन्नं गेण्हते वि अन्ने न त्रिविधं त्रिविधेन-मनसा वाचा और अदत्त-वस्तु ग्रहण करने वालों का समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं कायेन न करोमि न कारयामि अनुमोदन भी नहीं करूँगा, यावज्जीवन तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । के लिए, तीन करण तीन योग से- मन से, करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न वचन से, काया से---न करूँगा, न कराऊँगा समणुजाणामि। और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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