________________
छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका )
तस्स भंते ! पडिवकमामि निदामि गरिहामि अध्यानं बोसिरामि ।
तच्चे भंते! महत्वए उबडिओमि सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं ।
१४ – प्रहावरे चउत्थे भंते ! महत्वए मेहुणाओ वेरमणं ।
सव्यं भंते! मेहुणं पचपखामि --- से दिव्वं वा माणुस वा तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं सेवेज्जा नेवन्नहि मेहणं सेवावेज्जा मेहूणं सेवावेज्जा मेहुणं सेवते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिनिहि लिवणं मणेणं वायाए काएण न करेमि न कारवेम करतं पि अन्नं न समपुजाणामि ।
तस्स भंते ! पविकमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसि रामि ।
चरस्थे भंते! महत्वए उबद्धिओमि सव्वा मेहुणाओ वेरमणं ।
१५ - अहावरे पंचमे भंते ! महत्यए परिग्गहाम्रो वेरमणं ।
सव्यं भंते! परिग्गहं पञ्चवखामि - से गामे या नगरे वारणे या अप्पं वा बहूं वा अनुं वा खूलं वा चिसमंतं वा अचित्तमंतं वा मेव सर्व परिग्गहं परिगेण्हेज्जा नेवन्नेहि परिग्गहं परिगेन्हा वेज्जा परियहं परिहंते वि
Jain Education International
१०६
तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि ।
तृतीये दन्त महाव्रते उपि सर्वस्माददत्तादानाद्विरमणम् ॥ ३॥
अथापरे चतुर्थ भदन्त महावते मैथुनारिमणम् ।
सर्व भदन्त ! मैथुनं प्रत्यास्यामि अथ दिव्यं वा मानुषं वा तिर्यग्योनिकं वा नैव स्वयं मैथुनं सेवे नैवान्ये नथुनं सेवयामि मैथुनं सेवमानानप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि मन मनुजानामि ।
तस्य भवन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि ।
चतुर्वे भवन्त महायते उपस्थितोऽस्थि सर्वस्माद् मैथुनाद्विरमणम् ॥ २४ ॥
अथापरे पञ्चमे भदन्त ! महाव्रते परिग्रहाद्विरमणम् ।
सर्व भदन्त ! परिग्रह प्रत्याख्यामिअथ ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा अल्पं वा बहुं वा अणुं वा स्थूलं का चित्तवन्तं वा अवित्तवन्तं वा नैव स्वयं परिग्रहं परिगृह्णामि, नैवान्यः परिग्रहं परिग्राहयानि परिग्रहं
For Private & Personal Use Only
अध्ययन ४ : सूत्र १४-१५
भंते ! मैं अतीत के अदत्तादान मे निवृत होता है उनकी निन्दा करता है, ग करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ ।
भंते! मैं तीसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व अदत्तादान की विरति होती है ।
१४- भंते ! इसके हमें मंजून को
पश्चात् चौथे होती है।
भंते ! मैं सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी अथवा तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का मैं स्वयं सेवन नहीं करूँगा, दूसरों से सेवन नहीं कराऊँगा और मंजुन सेवन करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से मन से, वचन से, काया से न करूँगा, न कराऊँगा और न करने वाले का अनुमोदन भी नहीं कहा।
भंते! मैं अतीत के मैथुन सेवन से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गह करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ ।
भते ! मैं चौथे महाव्रत में उास्थित हुआ हूँ । इसमें सर्व मैथुन की विरति होती है।
१५ भंते ! इसके पश्चात् पांचवें महाव्रत में परिकीवित होती है।
भंते ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ । गाँव में, नगर में या अरण्य में कहीं भी, अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्कूल, सचित्त या प्रचित्त किसी भी से परिग्रह का ग्रहण नहीं कराऊंगा और परिग्रह का ग्रहण मैं स्वयं नहीं करूँगा, दूसरों
www.jainelibrary.org