________________
दसवेआलियं ( दशवकालिक )
११०
अध्ययन ४ : सूत्र १६-१८
अन्ने न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए परिगृह्णतोऽप्यन्यान समनुजानामि परिग्रह का ग्रहण करने वालों का अनुमोदन तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधन - मनसा भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए, तीन काएणं न करेमि न कारवेमि करतं वाचा कायेन न करोमि न कारणामि
करण तीन योग से .... मन से, वचन से, काया
से ---न करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले दि अन्नं न समणुजाणामि । कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि ।
का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तस्स भंते पडिक्कमामि निदामि तस्य भदन्त! प्रति कामामि निन्दामि भते ! मैं अतीत के परिग्रह से निवृत्त गरिहामि अप्पाणवोसिरामि। गहें आत्मानं व्यत्सृजामि ।
होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गहरे पंचमे भंते ! महन्वए उपटिओमि पञ्त्तमे भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। सव्वानो परिग्गहाओ वेरमणं । सर्वस्मात् परिग्रहाहि रमणम् ॥१५॥ ___भंते! मैं पाँचवें महाव्रत में उपस्थित हुआ
हूँ। इसमें सर्व परिग्रह की विरति होती है । १६-अहावरे घढे भंते ! वए अथापरे षष्ठे भदन्त ! व्रते रात्रि- १६–भते ! इसके पश्चात् छठे व्रत में राईभोयणाओ देरमणं । भोजनाहिरमणम्।
रात्रि-भोजन५६ की विरति होती है । सव्वं भंते ! राईभोयणं पच्च- सर्व भदन्त ! रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामि- भंते ! मैं सब प्रकार के रात्रि-भोजन पखाईम-से असणं वा पाणं बा अथ अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं का प्रत्याख्यान करता हूँ । अशन, पान, खाइम वा साइमं वा, नेव सयं राई
वा-नैव स्वयं रात्रौ भुजे, नंदा यान् रात्री खाद्य और स्वाद्य --किसी भी वस्तु को
भोजयामि, रानौ भुजानानप्यन्यान् रात्रि में मैं स्वयं नहीं खाऊँगा, दूसरों को मुंजेज्जा नेवन्नहि राई भुंजाषेज्जा
न समनुजानामि यावज्जीवं त्रिविधं नहीं खिलाऊँगा और खाने वालों का राइ भुंजते वि अन्ने न समजागेज्जा
त्रिविधेन मनसा वासा कायेन न अनुमोदन भी नहीं करूँगा, यावजी बन के जावज्जीवाए तिधिहं तिधिहेणं मणेणं करोमि न कारयाभि कुर्वन्तमप्यन्य न लिए तीन करण तीन योग से-मन से, वचन वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि समनुजानामि ।
रो, काया से न करूंगा, न कराऊँगा और करतं पि अन्नं न समणुजाणामि ।
करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तस्स भंते ! पडिक्कमामि तस्य भवन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि
भंते ! मैं अतीत के रात्रि-भोजन से निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । गहें आत्मानं व्युत्सृजामि ।
निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गहरे
करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। छद्र भंते ! वए उवट्रिओमि षष्ठे भदन्त ! व्रते उपस्थितोऽस्मि भंते ! में छठे व्रत में उपस्थित हुआ सवाओ राईभोयणाओ वेरमणं । सर्वस्माद् रात्रिभोजनाद्वि रमणम् ॥१६॥ हैं। इसमें सर्व रात्रि भोजन की विरति
होती है। १७-इच्चेयाई पंच महब्वयाई इत्येतानि पञ्च महावतानि रात्रि- १७- मैं इन पांच महाव्रतों और राईभोयणवेरमण हवाई अत्तहिय- भोजन विरमणषष्ठानि प्रात्महितार्थ रात्रि-भाजन-विर ति रूप छठ व्रत को ट्रयाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि। उपसम्पद्य विहरामि ॥१७॥
आत्महित के लिए अंगीकार कर बिहार
करता हूँ६२ । १८-से भिक्खू वा भिक्खुणी स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयत- १८..... संयत विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातवा संजयविरयपडिहयपच्चक्खाय
विरत - प्रतिहत - प्रत्याख्यात - पापकर्मा पापकर्मा६३ भिक्षु अथवा भिक्षुणी, दिन में या पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ
दिवा वा रात्री वा एकको वा रात में,४ एकान्त में या परिषद् में, सोते या
परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रता-अथ जागते.---पृथ्वी,५ भित्ति, (नदी पर्वत आदि वा परिसागओ वा सुत्ते वा
पथिवीं वा भित्ति वा शिलां वां लेष्ट वा की दरार), शिला, ढेले,१८ सचित्त-रज जागरमाणे वा-से पुर्वि वा भित्ति
ससरक्ष वा कार्य ससरक्षं वा वस्त्रं से संसृष्ट ६६ काय अथवा सचित्त रज से संसृष्ट वा सिलं वा लेलं वा ससरवखं वा हस्तेन वा पादेन वा काष्ठेन वा
वस्त्र या हाथ, पाँव, काष्ठ, खपाच, अंगुली, कायं ससरक्खं वा बत्थं हत्थेण वा कलिञ्चेन वा अंगुल्या वा शलाकया। शलाका अथवा शलाका-समुह से न पाएण वा कट्टेण वा किलिचेण वा वा शलाकाहस्तेन वा-नालिखेत् न आलेखन २ करे, न बिलेखन करे, न घट्टन७४
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org