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________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १११ अध्ययन ४: सूत्र १६ अंगुलियाए वा सलागाए वा विलिखेत् न घट्टयेत् न भिन्द्यात् अन्येन करे और न भेदन ५ करे, दूसरे से न आलेखन सलागहत्थेण वा, न आलिहेजा नालेखयेत् न विलेखयेत् न घट्टयेत् न कराए, न विलेखन कराए, न घट्टन कराए न विलिहेज्जा न घटेज्जा न भेदयेत् अन्यमालिखन्तं वा विलिखन्तं और न भेदन कराए, आलेखन, विलेखन, भिदेज्जा अन्नं न आलिहावेज्जा न वा घट्यन्तं वा भिन्दन्तं वा न घट्टन या भेदन करने वाले का अनुमोदन न विलिहावेज्जा न घडावेज्जा न समनुजानीयात् यावज्जीवं त्रिविधं करे, यावज्जीवन के लिए, नीन करण तीन योग भिदावज्जा अन्न आलिहत वा विविधेन मनसा वाचा कायेन न से मन से, वचन में, काया से न करूंगा, विलिहंत वा घट्टतं वा भिदंतं वा न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं समनुजानामि । भी नहीं करूंगा। तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि भंते ! मैं अतीत के पृथ्वी-समारम्भ से गरिहामि अपाणं वोसिरामि । गहें आत्मानं व्युत्सृजामि ॥१८॥ निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ गाँ करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। १६-से भिक्रव वा भिक्खुणी वास भिक्षुर्वा भिक्षुको वा संयत-विरत- १६-संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातसंजयविरयपडिहयपच्चकवायपावकम्मे प्रतिहत-प्रत्यास्यात-पापकर्मा दिवा वा पापकर्मा भिक्षु अथवा भिक्षुणी, दिन में या दिया वा राओ वा एगओ वा रात्रौ वा एकको वा परिषद् गतो वा रात में, एकान्त में या परिषद में, सोते परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे सुप्तो वा जाग्रहा-अथ उदक वा 'ओस' या जागते- उदक,६ ओस,७७ हिम, ८ वा-से उदगं वा ओसं वा हिम वा वा हिम वा महिकां वा करकं वा धूं अर, ओले, भूमि को भेद कर निकले महियं वा करगं वा हरतणुगं वा सुद्धोदगं हरतनुक' वा शुद्धोदक वा उदकाई वा हुए जल बिन्दु, शुद्ध उदक (आन्तरिक्ष वा उदओल्लं वा कायं उदओल्लं वा काय उदका वा वस्त्रं सस्निग्ध वा कार्य जल), जल से भीगे3 शरीर अथवा जल से वत्थं ससिणिद्धं वा कार्य ससिणिद्ध। . सस्निग्धं वा वस्त्रं-नाऽऽमृशेत् न भीगे वस्त्र, जल से स्निग्ध ४ शरीर अथवा संस्पृशेत् नाऽऽपीडयेत् न प्रपीडयेत जल से स्निग्ध वस्त्र का न आमर्श करे, न वा वत्थं, न आमुसेज्जा न संफुसेज्जा न नाऽऽस्फोट येत्न प्रस्फोटयेत् संस्पर्श५ करे, न आपीड़न करे, न प्रपीड़न आवीलेज्जा न पवीलेज्जान अवखोडेज्जा नाऽऽतापयेत् न प्रतापयेत् अन्येन करे, न प्रास्फोटन करे, न प्रस्फोटन करे,८७ न पक्खोडेज्जा न आयावेज्जा न नाऽऽमर्शयेत् न संस्पर्शयेत् नाऽऽपीडयेत् पयावेज्जा अन्नं न प्रामुसावेज्जा न न आतापन करे, और न प्रतापन ८ करे, न प्रपीडयेत् नाऽऽस्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् संफुसावेज्जा न प्रावीलावेज्जा न दूसरों से न आमर्श कराए, न संस्पर्श कराए, नाऽऽतापयेत् न प्रतापयेत् अन्यमामृशन्तं पवीलावेज्जा न अक्खोडावेज्जा न न आपीड़न कराए, न प्रपीड़न कराए, न वा संस्पृशन्तं वा आपोड्यन्तं वा पक्खोडावेज्जा न आयावेज्जा न प्रपोड्यन्त वा आस्फोटन कराए, न प्रस्फोटन कराए, न आस्फोटयन्तं वा पयावेज्जा अन्नं आमुसंतं वा प्रस्फोटयन्तं वा आतापन कराए, न प्रतापन कराए। आमर्श, आतापयन्त वा संफुसंतं वा प्रावोलतं वा पवीतं प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयात् संस्पर्श, आपीड़न, प्रपीड़न, आस्फोटन, ना प्रवोतं वा पखोटतं वा यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधन-मनसा प्रस्फोटन, आतापन या प्रतापन करने वाले आयावंतं वा पयावंतं वा न वाचा कायेन न करोमि न कारयामि का अनुमोदन न करे, यावज्जीवन के लिए, माना जातानीमा जति कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तीन करण, तीन योग से .. मन से, वचन से, तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न काया से- न करूँगा, न कराऊँगा और करने करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं वाले का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। न समणुजाणामि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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