SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) तस्स भंते! पश्मिनाम गरिहामि अप्पाणं दोसिरामि । वा वा २० - से भिक्खू वा भिक्खुणी संजयविश्यपपिचलाय पावक मे दिया वा राम्रो वा एगओ वा परिसागश्रो सुते वा जागरमाणे वा-से अर्गाणि वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अच्चि वाजा वा अलावा सुद्वाण वा उक्कं वा न उजेज्जा न घट्ट जा न उज्जालेज्जा न निव्वावेज्जा अन्नं न जावज्जा न घट्ट वेण्या न उजालान्जा न निव्वावेज्जा अजंनंत वा घट्ट वा उज्जाल वा निव्वावतं वा न समगुजाज्जा जावकीबाए सिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेसि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते । पक्किमामि निदामि गरिहामि अवाणं दोसिरामि । २१ से भिक्खु वा भिक्खुणी वा संजयविरयप डिहयपच्चवखायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुसे वा जागरमाणे वा से सिएण वा वियण या तालियंटेश वा पत्लेख या साहाए वा साहाभंगेण वा पण वा पिहू गहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्येण वा मुहेण वा अप्पणो वा कार्य बाहिर वा वि पुग्गलं न फुमेज्जा न वीएज्जा अन्नं न फुमा वेज्जा Jain Education International ११२ तस्य भदन्त ! प्रतिकामामि निन्दामि आत्मानं सृजामि ॥१६॥ भिक्षु भिक्षुकी वा संयत-विरतप्रतिहत प्रत्यास्यात पापकर्मा दिया वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्तो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा अथ अग्नि वा अङ्गारं वा मुर्मुरं वा अच्चिर्वा ज्वालां वा अलातं वा शुद्धाग्नि वा उल्का वा -नोत्सिञ्चेत् न घट्टयेत् नोज्ज्वासमेत निर्वापयेत् अन्येग गोलेचयेत् न घट्टयेत् नोज्ज्वालयेत् न निर्वापयेत् अन्यमुत्सितं घट्टयन्तं वा पतं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयात् यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कान न करोमि न कारयामि कुर्वतमप्ययं न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि आत्मानं सृजामि ||२०|| स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयत-विरतप्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्मा दिया या रात्री वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा -अथ सितेन वा विभुवनेन या तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभङ्गन वा 'पेहुणेण' वा 'पेहुण' हस्तेन वा चेलेन वा या हस्तेन वा मुन या आत्मनो वा कार्य बाह्य वाऽपि पुद्गलं न फूत्कुर्यात् न व्यजेत् अन्येन न फूत्कारयेत् न व्याजयेत् न व्यजेत् अन्येन न फूत्कारयेत् न व्याजयेत् For Private & Personal Use Only अध्ययन ४ सूत्र २०-२१ भंते! मैं अतीत के जल-समारम्भ से नित होता है, उसकी निन्दा करता है, महाँ करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । २० संयत विरत प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा भिक्षु अथवा भिक्षुणी, दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते या जानते अग्नि अंगारे, ६० मुर्मुर, १ ज्वाला, ६३ अलात (अधजली ९८ अचि लकडी ) ६४, शुद्ध ( काष्ठ रहित ) अग्नि, १५ अथवा उल्का का न उत्सेचन करे, न घट्टन करे, न उज्ज्वालन करे और न निर्वाण करे न वुझाए) दूसरों से उत्सेचन कराए, न घट्टन कराए, न उज्ज्वालन कराए और न निर्वाण कराए; उत्सेचन, धट्टन, उज्ज्वालन या निर्वाण करने वाले का अनुमोदन न करे, जीवन के लिए तीन मन से, वचन से, काया करण तीन योग से से न करूँगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। भन्ते ! मैं अतीत के अग्नि समारम्भ से निवृत्त होता है, उसकी निन्दा करता है, गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । , २१ संयतविरत प्रतिस्पास्यात पापकर्मा भिक्षु अथवा भिक्षुणी, दिन में या रात में, एकान्त में था परिषद् में, सोते या जागते चामर पंखे १०१ १०२ बीजन, ३ पत्र, १०४ शाखा, शाखा के टुकड़े, मोर पंख, १०५ मोर पिच्छी, १०६ वस्त्र, वस्त्र के पल्ले, १७, हाथ या मुंह से अपने शरीर अथवा बाहरी पुद्गलों को फूँक न दे, हवा न करे; दूसरों --- से दिलाए हवा न कराए फेंक देने फूंक न www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy