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________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि) ३५१ अध्ययन ७ : श्लोक १०-११ टि० १४-१६ उप (अव) धारित का अर्थ वस्तु की सामान्य जानकारी (उपलब्धिमात्र) और निःशङ्कित का अर्थ वस्तु की विशिष्ट जानकारी (सर्वोपलब्धि) है। अतीत और अनागत के साथ उपधारित और वर्तमान के साथ निःशंकित का प्रयोग किया है वह सापेक्ष है। वर्तमान की जितनी पूर्ण जानकारी हो सकती है उतनी अतीत और भविष्य की नहीं हो सकती। सामान्य बात यही है कि दोनों काल के अनवधारित और शंकित अर्थ के बारे में यह इसी प्रकार है' इस प्रकार नहीं कहना चाहिये किन्तु 'मैं नहीं जानता' इस प्रकार कहना चाहिए । मिथ्या वचन और विवाद से बचने का यह उत्तम उपाय है । जिनदास चुणि (पृ० २४८) में ये श्लोक इस प्रकार हैं : तं तहेव अईयंमि, कालंमिऽण वधारियं । जं चण्णं संकियं वावि, एवमेवंति नो वए।। तहेवाणागयं अत्थं, जे होइ उवहारियं । निस्संकियं पड़प्पन्ने, एवमेयंति निदिसे ॥ अनुवाद इसी प्रकार अतीत काल के अनिश्चित अर्थ तथा अन्य (वर्तमान तथा भविष्य) के शंकित अर्थ के विषय में यह ऐसे ही है-इस प्रकार न कहे। इसी प्रकार भविष्यकाल तथा वर्तमान और अतीत के निश्चित अर्थ के बारे में यह ऐसे ही है-इस प्रकार न कहे। श्लोक १० १४. श्लोक १० छश्लोक से नवें श्लोक तक निश्चयात्मक भाषा बोलने का निषेध किया है और इस श्लोक में उसके बोलने का विधान है। निश्चयात्मक भाषा बोलनी ही नहीं चाहिए, ऐसा जैन दृष्टिकोण नहीं है, किन्तु जैन दृष्टिकोण यह है कि जिस विषय के बारे में वक्ता को सन्देह हो या जिस कार्य का होना संदिग्ध हो उसके बारे में निश्चयात्मक भाषा नहीं बोलनी चाहिए -ऐसा करूँगा, ऐसा होगा, इस प्रकार नहीं कहना चाहिए । 'किन्तु मेरी कल्पना है कि मैं ऐसा करूँगा,' 'संभव है कि यह इस प्रकार होगा'–यों कहना चाहिए । स्याद्वाद को जो लोग सन्देहवाद कहते हैं और जो कहते हैं कि जैन लोग निश्चयात्मक भाषा में बोलते ही नहीं उनके लिए यह श्लोक सहज प्रतिवाद है। श्लोक ११: १५. परुष ( फरसा क): जिनदास और हरिभद्र ने 'परुष' का अर्थ स्नेह-वजित-रूखा किया है। शीलाङ्कमूरि के अनुसार इसका अर्थ मर्म का प्रकाशन करने वाली वाणी है। १६. महान् भूतोपघात करने वाली ( गुरुभओवघाइणी ख): आयारधूला ४।१० में केवल 'भूओवघाइय' शब्द का प्रयोग मिलता है। यहाँ 'गुरु' शब्द का प्रयोग संभवतः पद-रचना की दृष्टि से हुआ है। 'गुरु' शब्द भूत का विशेषण हो तो अर्थ का विरोध आता है। छोटे या बड़े किसी भी जीव की घात करने वाली भाषा मुनि के लिए अवाच्य है । इसलिए यह भूतोपघातिनी का विशेषण होना चाहिए। जिस भाषा के प्रयोग से महान् भूतोपघात हो उसे गुरुभूतोपघातिनी भाषा कहा जा सकता है । १-अ० चू० पृ० १६७ : उवधारियं वत्थुमतं, नीसंकितं सव्वपगारं। २ -(क) जि० चू० पृ० २४६ : 'फरुसा' णाम णेहवज्जिया।। (ख) हा० टी० ५० २१५ : 'परुषा भाषा' निष्ठुरा भावस्नेहरहिता। ३-आ० चू० ४।१० वृ० : 'परुषां' मर्मोद्घाटनपराम् । ४-जि० चू० पृ० २४६ : जीए भासाए भासियाए गुरुओ भूयाणुवघाओ भवइ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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