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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
३५२ अध्ययन ७: श्लोक १३-१५ टि०१७-१६ अगस्त्य चूणि में गुरु-भूतोपघातिनी' के तीन अर्थ किए गए हैं : (१) वृद्ध आदि गुरुजन या सब जीवों को उपतप्त करने वाली, (२) गुरु अर्थात् बड़े व्यक्तियों का उपघात करने वाली, जैसे--कोई विदेशागत व्यक्ति है । वह अपने को कुल-पुत्र या ब्राह्मण बतलाता है । उसे दास आदि कहना उसके उपघात का हेतु बनता है । (३) गुरु अर्थात् बड़ी भूतोपघात करने वाली, जैसे -कोई ऐसी बात कहना जिससे विद्रोह भड़क जाए, अन्तःपुर आदि को मार डाले'।
यहाँ उपघात के प्राणिवध, पीड़ा और अभ्याख्यान—ये तीन अर्थ हो सकते हैं । प्रस्तुत श्लोक में स्नेह-वजित, पीड़ा और प्राणि वध कारक तथा अभ्याख्यानात्मक सत्य वचन बोलने का निषेध है।
श्लोक १३ : १७. आचार सम्बधो भाव-दोष को जानने वाला ( आयारभावदोसन्नू ग ) :
जिनदास चणि और टीका में 'आयार' का कोई अर्थ नहीं किया गया है । अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'आयार' का अर्थ- 'वचननियमन' किया है । भाव-दोष का अर्थ प्रदुष्ट चित्त है । काना किसी व्यक्ति का नाम हो उसे काना कहने में दोष नहीं है, किन्तु द्वेषपूर्ण चित्त से काने व्यक्ति को काना नहीं कहना चाहिए।
भाव-दोष का दूसरा अर्थ प्रमाद है । प्रमादवश किसी को काना नहीं कहना चाहिए।
श्लोक १४ १८. श्लोक १४:
होल, गोल आदि शब्द भिन्न-भिन्न देशों में प्रयुक्त होने वाले तुच्छता, दुश्चेष्टा, विग्रह, परिभव, दीनता और अनिष्टता के सूचक हैं । एक शब्द में ये अवज्ञा-सूचक शब्द हैं। होल-निष्ठुर आमंत्रण । गोल-जारपुत्र । श्वान-कुत्ता । वृषल-शूद्र । द्रमक-रंक । दुर्भग--भाग्यहीन।
तुलना के लिए देखिए आयारचूला ४।१२ तथा 'होलावायं सहीवायं, गोयावायं च नो वदे' (सूत्रकृताङ्ग १.६.२७) ।
श्लोक १५: १६. श्लोक १५:
इन शब्दों का प्रयोग करने से स्नेह उत्पन्न होता है । यह श्रमण अभी भी लोक-संज्ञा को नहीं छोड़ रहा है, यह चाटुकारी है'ऐसा लोग अनुभव करते हैं, इसलिए इनका निषेध किया गया है।
१-अ० चू० ५० १६७ : विद्धादीण गुरूण सव्वभूताण वा उवघातिणी, अहवा गुरूणि जाणि भूताणि महंति, तेसि कुलपुत्तबंभणत्त
भावितं विदेसागतं तहाजातीयकतसंबंध दासादि वदति जतो से उवघातो भवति गुरु वा भूतोवघातं जा करेति रायंतेउरादि
अभिद्रोहातिणा मारणंतियं ।। २-(क) ठा० १०.६० वृ०: उवधातनिस्सते . उपधाते-प्राणिवधे निधितम्-आश्रितम्, दशमं मृषा ।
(ख) नि० चू० : उपघातः-पीडा व्यापादनं वा।
(ग) प्र. वृ० ११ : उवघाइयणिस्सिया–आधातनि:सृता चौरस्त्वमित्याद्यभ्याख्यानम् । ३-अ० चू० पु. १६८ : वयण-नियमणमायारो, एयंमि आयारे सति भाव दोसो—पदुळं चित्तं तेण भावदोसेण न भासेज्ज । जति
पूण काण-चोर-ति कस्सति णामं ततो भासेज्जावि । अहवा आयारे भावदोसो पमातो, पमातेण ण भासेज्ज । ४- हा० टी०प० २१५ : इह होलादिशब्दास्तत्तद्देशप्रसिद्धितो नैष्ठुर्यादिवाचकाः। ५--अ० चू० पृ० १६८ : होलेत्ति निठुरमामंतणं देसीए भविलवदमिव । एवं गोले इति दुच्चेद्वितातो सुणएणोवमाणवदणं वसुलो
सुदृपरिभवववणं भोयणनिमित्तं घरे घरे द्रमति गच्छतीति दमओ रंको। दूभगो अणिटो। ६-जि० चू० पृ० २५० : एयाणि अज्जियादीणि णो भासेज्जा, किं कारणं? जम्हा एवं भणंतस्स हो जायइ परोप्पर, लोगो
य भणेज्जा, एवं वा लोगो चितेज्जा, एसऽज्जवि लोगसन्न ण मुयइ, चाटुकारी वा।
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