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दसवेलियं ( दशवैकालिक )
२२१. मधुघृत ( महु-घयं
) :
जैसे मधु और घी सरस मानकर खाए जाते हैं वैसे ही अस्वाद-वृत्ति वाला मुनि नीरस भोजन को भी सरस की भांति खाए । इस उपमा का दूसरा आशय यह भी हो सकता है कि जैसे मधु और घी को एक जबड़े से दूसरे जबड़े की ओर ले जाने की आवश्यकता नहीं होती किन्तु वे सीधे ही निगल लिए जाते हैं, उसी प्रकार स्वाद - विजेता मुनि सरस भोजन को स्वाद के लिए मुँह में इधर-उधर घुमाता न रहे, किन्तु उसे शहद और घी की भाँति निगल जाए'।
घ
२५६ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक १८ टि० २२१-२२३
इलोक १८:
जो जाति कुल आदि के सहारे नहीं जीता उसे मुमाजीवी कहा जाता है'।
२२२. मुधाजीवी ( मुहाजीवी ग ) :
टीकाकार मुधाजीवी का अर्थ अनिदान-जीवी करते हैं और मतान्तर का भी उल्लेख करते हैं ।
वाला हो सकता है किन्तु संगत लगता है ।
मुधाजीवी या अनिदान-जीवी का अर्थ अनासक्त भाव से जीने वाला, भोग का संकल्प किये बिना जीने इस प्रसङ्ग में इसका अर्थ प्रतिफल देने की भावना रखे बिना जो आहार मिले उससे जीवन चलाने वाला एक राजा था। एक दिन उसके मन में विचार आया कि सभी लोग अपने-अपने धर्म की प्रशंसा करते हैं और उसको मोक्ष का साधन बताते हैं अत: कौन-सा धर्म अच्छा है उसकी परीक्षा करनी चाहिए। धर्म की पहचान उनके गुरु से ही होगी। वही सच्चा गुरु है जो अनिविष्ट भोजी है । उसी का धर्म सर्व श्रेष्ठ होगा। ऐसा सोच उसने अपने नौकरों से घोषणा कराई कि राजा मोदकों का दान देना चाहता है । राजा की मोदक दान की बात सुन अनेक कार्यटिक आदि वहाँ दान लेने आये । राजा ने दान के इच्छुक उन एकत्र काटक आदि से पूछा आप लोग अपना जीवन निर्वाह किस तरह करते हैं ?" उपस्थित भिक्षुओं में से एक ने कहा- "मैं मुख से निर्वाह करता हूँ ।" दूसरे ने कहा- "मैं पैरों से निर्वाह करता हूँ।" तीसरे ने कहा- "मैं हाथों से निर्वाह करता हूँ ।" चौथे ने कहा"मैं लोकानुग्रह से निर्वाह करता हूँ ।" पांचवें ने कहा- "मेरा क्या निर्वाह ? मैं मुधाजीवी हूँ ।" राजा ने कहा- "आप लोगों के उत्तर को मैं अच्छी तरह नहीं समझ सका अतः इसका स्पष्टीकरण करें ।" तब पहले भिक्षु ने कहा- "मैं कथक हूँ, कथा कह कर अपना निर्वाह करता है, अतः करता हूं।" दूसरे ने कहा मैं मुख तीसरे ने कहा "मैं लेखक हूँ, अतः हाथ से निर्वाह करता हूँ ।" पाँचवे ने कहा "मैं संसार से विरक्त नियंग्य है। संवननिर्वाह के हेतु निःस्वार्थ बुद्धि से लेता है। मैं आहार आदि के लिए किसी की अधीनता स्वीकार नहीं करता, अतः मैं मुधाजीवी हूँ ।" इस पर राजा ने कहा- "वास्तव में आप ही सच्चे साधु हैं ।" राजा उस साधु से प्रतिबोध पाकर प्रव्रजित हुआ ।
देश पहुंचाता हूँ, लेखवाहक हूं अतः पैरों से निर्वाह करता है।"
चौथे ने कहा “मैं लोगों का अनुग्रह प्राप्त कर निर्वाह करता हूँ
२२३. अरस (अरसं क )
गुड़, दाड़िम आदि रहित, संस्कार रहित या बधार रहित भोज्य-वस्तु को 'अरस' कहा जाता है ।
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१ (क) अ० चू० पृ० १२४ : महुघतं व भुंजेज्ज जहा मधुघतं कोति सुरसमिति सुमुहो भुंजति तहा तं सुमुहेण भुंजितव्वं, अहवा महू-तमिव हणुयातो हनु असंवारते
(ख) जि० ० ० १६० तं मधुयमिव भूपि साहूया, जहा महद्ययानि जति तहा तं असोहणमवि भुजिष्यं अहवा जहा महष हा हवं असंचारेहि भुजितव्यं ।
(ग) हा० टी० प० १८० : मधुघृतमिव च भुञ्जीत संयतः, न वर्णाद्यर्थम्, अथवा मधुघृतमिव ' णो वामाओ हणुआओ दाहिणं हणुअं संचारेज्ज' । २०१० १० १२० ३० टी० प० १०१ ४ – (क) अ० चू० पृ १२४ : अरसं गुडदा डिम दिविरहितं ।
(ख) जि०० पू० १६० हिंगुलवणादिहि संभरेह रहिये ।
(ग) हा० टी० प० १८१ अरसम् असंप्राप्तरसं हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतमित्यर्थः ।
मुहाजीवि नाम जातिकुलादीहि आजीपणविसेसेहि परं न जीवति । 'मुपाजीवी' सर्ववा अनिदानजीची जात्याद्यनाजीवक इत्यन्ये।
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