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पिडेसणा ( पिण्डषणा)
२५७ अध्ययन ५ (प्र०उ०) : श्लोक ६८ टि० २२४-२२८
२२४. विरस (विरसं क ):
जिसका रस बिगड़ गया हो, सत्व नष्ट हो गया हो उसे 'विरस' कहा जाता है, जैसे बहुत पुराने, काले और ठण्डे चावल 'विरस' होते हैं।
२२५. व्यञ्जन सहित या व्यञ्जन रहित (सूइयं वा असूइयं ):
सूप आदि व्यञ्जनयुक्त भोज्य-पदार्थ 'सूपित' या 'सूप्य' कहलाते हैं । व्यञ्जन रहित पदार्थ असूपित' या 'असूप्य' कहलाते हैं।
टीकाकार ने इनके संस्कृत रूप 'सूचित' और 'असूचित' दिए हैं और चूर्णिकार द्वारा मान्य अर्थ स्वीकार किया है । उन्होंने मतान्तर का उल्लेख करते हुए इनका अर्थ—'कहकर दिया हुआ' और 'बिना कहकर दिया हुआ' किया है। चरक के अनुसार 'सूप्य' शीघ्र पकने वाला माना गया है। __ तुलना- अवि सूइयं वा सुक्कं-'सूइयं' ति दध्यादिना भक्तमार्दीकृतमपि तथा भूतं शुष्क वा बल्लचनकादि
आयारो-६।४।१३, वृ० पत्र २८६ । २२६. प्राई ( उल्लं"):
जिस भोजन में छौंका हुआ शाक या सूप यथेष्ठ मात्रा में हो उसे 'आई' कहा गया है।
२२७. शुक्क ( सुक्कं ग ) :
जिस भोजन में बघार रहित शाक हो उसे 'शुष्क' कहा गया है। २२८. मन्थु ( मन्थु घ):
___अगस्त्य धुणि और टीका में 'मन्थु' का अर्थ बेर का चूर्ण किया है । जिनदास महत्तर ने बेर, जौ आदि के चूर्ण को 'मन्थु' माना है। सुश्रुत में 'मन्थ' शब्द का प्रयोग मिलता है । वह सम्भवतः 'मन्थु' का ही समानार्थक शब्द होना चाहिए। उसका लक्षण इस प्रकार बताया गया है-जौ के सत्तू घी में भूनकर शीतल जल में न बहुत पतले, न बहुत सोन्द्र घोलने से 'मन्थ' बनता है । 'मन्थु' खाद्य द्रव्य भी रहा है और सुश्रुत के अनुसार विविध द्रव्यों के साथ विविध रोगों के प्रतिकार के लिए उसका उपयोग किया जाता था।
१-(क) अ० चू० पृ० १२४ : विरसं कालंतरेण सभावविच्चुत उस्सिण्णोयणाति ।
(ख) जि० चू० पृ० १६० : विरसं नाम सभावओ विगतरसं विरसं भण्णइ, तं च पुराणकण्हवन्नियसीतोदणादि ।
(ग) हा० टी० ५० १८१ : 'विरसं वापि' विगतरसमतिपुराणौदनादि । २--अ० चू० पृ० १२४ : सूवित सव्वंजणं असूवित णिव्वंजणं । ३–हा० टी० ५० १८१ : 'सूचितं' व्यञ्जनादियुक्तम् 'असूचितं वा' तद्रहितं वा, कथयित्वा अकथयित्व। वा दत्तमित्यन्ये । ४-च० सू० अ० २७.३०५। ५--(क) अ० चू० पृ० १२४ : सुसूवियं 'ओल्लं'।
(ख) हा० टी० ५० १८१ : 'आद्र' प्रचुरव्यञ्जनम् । ६–(क) अ० चू० पृ० १२४ : मंदसूवियं 'सुक्क'।
(ख) हा० टी० प०१८१ : शुष्कं स्तोकव्यञ्जनम् । ७-(क) अ० चू० पृ१२४ : बदरामहितचुण्णं मन्यु।
(ख) हा० टी० ५० १८१ : मन्यु-बदरचूर्णादि । ८-जि० चू० पृ० १६० : मन्थू नाम बोरचुन्न जवचुन्नादि । ६-सु० सू० अ० ४६.४२५ :
सक्तवः ससिषाऽभ्यक्ताः, शीतवारिपरिप्लुताः ।
नातिद्रवा नातिसान्द्रा, मन्थ इत्युपदिश्यते ।। १०----सु० सू० अ०४६.४२६-४२८ ।
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