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दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २५८ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६६ टि० २२६-२३१
यवचूर्ण ( सत्तू ) खाया भी जाता था और पिया भी जाता था। द्रव-मन्थु के लिए 'उदमन्थ' शब्द का प्रयोग मिलता है। वर्षाऋतु में 'उदमन्थ' ( जलयुक्त सत्तू ), दिन में सोना, अवश्याय (ओस अर्थात् रात्रि में बाहर सोना ), नदी का पानी, व्यायाम, आतप (धूप)-सेवन तथा मैथुन छोड़ दे ।
____ मन्थु' के विविध प्रकारों के लिए देखिए ५.२.२४ 'फलमंथूणि' की टिप्पण। २२६. कुल्माष ( कुम्मास ) :
जिनदास महत्तर के अनुसार 'कुल्माष' जौ के बनते हैं और वे 'गोल्ल' देश में किए जाते हैं । टीकाकार ने पके हुए उड़द को 'कुल्माष' माना है और यवमास को 'कुल्माष' मानने वालों के मत का भी उल्लेख किया है । भगवती में भी 'कुम्मासपिंडिका' शब्द प्रयुक्त हुआ है। वहाँ वृत्तिकार ने 'कुल्माष' का अर्थ अधपके मूंग आदि किया है और केवल अधपके उड़द को 'कुल्माष' मानने वालों के मत का भी उल्लेख किया है। वाचस्पति कोश में अधपके गेहूँ को 'कुल्माष' माना है और चने को 'कुल्माष' मानने वालों के मत का भी उल्लेख किया है।
अभिधान चिन्तामणि की रत्नप्रभा व्याख्या में अधपके उड़द आदि को 'कुल्माष' माना है । चरक की व्याख्या के अनुसार जौ के आटे को गूंथकर उबलते पानी में थोड़ी देर स्विन्न होने के बाद निकालकर पुन: जल से मर्दन करके रोटी या पूड़े की तरह पकाए हुए भोज्य को अथवा अर्ध स्विन्न चने या जौ को 'कुल्माष' कहा जाता है और वे भारी, रूखे, वायुवर्धक और मल को लाने वाले होते है।
श्लोक ६६ २३०. अल्प या अरस होते हुए भी बहुत या सरस होता है ( अप्पं पि बहु फासुयं ख):
___ अल्प और बह की व्याख्या में चूणि और टीका में थोड़ा अन्तर है। चूणि के अनुसार इसका अर्थ-अल्प भी बहुत हैहोता है और टीका के अनुसार इसका अर्थ अल्प या बहुत, जो असार है-होता है । २३१. मुधालब्ध ( मुहालद्धंग ) :
उपकार, मंत्र, तंत्र और औषधि आदि के द्वारा हित-सम्पादन किए बिना जो मिले उसे 'मुधालब्ध' कहा जाता है।
१-च० सू० अ० ६.३४-३५ :
"उदमन्थं दिवास्वप्नमवश्याय नदीजलम् ।
व्यायाममातपं चैव व्यवायं चात्र वर्जयेत् ।" २---जि० चू० पृ० १६० : कुम्मासा जहा गोल्लविसए जवमया करेति । ३-हा० टी० ५० १८१ : कुल्माषा: ---सिद्धमाषाः, यवमाषा इत्यन्ये । ४.- भग० १५.८ : एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए । ५ - भग० १५.१ वृ० : कुल्माषा अर्द्ध स्विन्ना मुद्गादयः, माषा इत्यन्ये । ६.--अर्द्ध स्विन्नाश्च गोधूमा, अन्ये च चणकादयः । कल्माषा इति कथ्यन्ते । ७–अ० चि० काण्ड ४.२४१ : कुल्माष, यावकः द्वे अर्धपक्वमाषादेः । ८ --च० सू० अ० २७.२६२ : कुल्माषा गुरवो रूक्षा वातला भिन्नवर्चसः । &—(क) अ० चू० पृ० १२४ : 'अप्पं पि बहु फासुयं' 'फासुएसणिज्जं दुल्लभं' ति अप्पमवि तं पभूतं । तमेव रसादिपरिहोणमवि अप्पमवि। (ख) जि० चू० पृ० १६० : तत्थ साहुणा इमं आलंबणं कायवं, जहा मम संथ वपरिधारिणो अणुवकारियस्स अप्पमवि परो
देति तं बहु मण्णियव्वं, जं विरसमवि मम लोगो अणुवकारिस्स देति तं बहु मन्नियध्वं । १०- हा० टी० ५० १८१ : अल्पमतन्न देहपूरकमिति किमनेन ? बहु वा असारप्रायमिति, वा शब्दस्य व्यवहितः संबंधः, कि
विशिष्टं तदित्याह – 'प्रासुक' प्रगतासु निर्जीवमित्यर्थः, अन्ये तु व्याचक्षते अल्पं वा, वाशब्दाद्विरसादि वा, बहुप्रासुकं-सर्वथा
शुद्ध नातिहीलयेदिति । ११- (क) अ० चू० पृ० १२४ : मुधालद्ध-वेंटलादिउवगारवज्जितेण मुहालद्ध।
(ख) जि० चू० पृ० १६. : मुहालद्ध नाम जं कोंटलवेंटलादीणि मोत्तू णमितरहा लद्धं तं महालद्ध। (ग) हा० टी० ५० १८१ : 'मुधालब्ध कोण्टलादिव्यतिरेकेण प्राप्तम् ।
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