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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
२३२. दोष वर्जित आहार को समभाव से खा ले ( भुजेज्जा दोसवज्जियं प
) :
विनदास महत्तर इसका अर्थ-आधाक आदि दोष रहित और टीकाकार संयोजना आदि दोष रहित करते हैं। आधाक आदि] गवेषणा के दोष है और संयोजना आदि भोषणा के यहां भोगेपणा का प्रसद्ध है इसलिए टीकाकार का मत अधिक संगत लगता है और यह मुनि के आहार का एक सामान्य विशेषण है, इसलिए पूर्णिकार का मत भी असंगत नहीं है ।
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परिभोगषणा के पाँच दोष हैं : - ( १ ) अंगार, (२) धूम, (३) संयोजना, (४) प्रमाणातिक्रान्त और (५) कारणातिक्रान्त । गौतम ने पूछा - "भगवन् ! अंगार, धूम और संयोजना से दोषयुक्त आहार व पान का क्या अर्थ है ?"
भगवान् ने कहा- "गौतम ! जो साधु अथवा साध्वी प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण कर उसमें मूच्छित गुद्ध, स्नेहाबद्ध और एकाग्र होकर आहार करे वह अंगार दोषयुक्त पान-भोजन है।
"जो साधु अथवा साध्वी प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण कर उसमें बहुत द्वेष और क्रोध करता हुआ आहार करे - वह धूम दोषयुक्त पान -भोजन है ।
"जो साधु अथवा साध्वी प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण कर स्वाद बढ़ाने के लिए उसे दूसरे द्रव्य के साथ मिलाकर आहार करे- वह संयोजना दोषयुक्त पान-भोजन है ।"
प्रमाणातिक्रान्त का अर्थ है- मात्रा से अधिक खाना। उसकी व्याख्या इस प्रकार है जो साधु अथवा साध्वी प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण कर कुकड़ी के अण्डे जितने प्रमाण वाले (वृत्तिकार के अनुसार मुर्गी के अण्डे का दूसरा अर्थ हैजिस पुरुष का जितना भोजन हो उस पुरुष की अपेक्षा से उसका बत्तीसवाँ भाग) ३२ कौर (ग्रास) से अधिक आहार करे -- वह प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन है । जो मुर्गी के अण्डे जितने प्रमाण वाले आठ कौर आहार करे- वह अल्पाहार है । जो मुर्गी के अण्डे जितने प्रमाण वाले बारह कौर आहार करे वह अपार्थ अवमोदरिका ( भूख के अनुसार आधे से भी अधिक कम खाना) है। जो मुर्गी के अण्डे जितने प्रमाण वाले सोलह कौर आहार करे वह अर्ध-अवमोदरिका है। जो मुर्गी के अण्डे जितने प्रमाणवाले चौबीस कौर आहार करे - वह अवमोदरिका है । जो मुर्गी के अण्डे जितने प्रमाण वाले ३२ कौर आहार करे वह प्रमाणप्राप्त है । जो इससे एक कौर भी कम आहार करे वह श्रमण निर्ग्रन्थ प्रकाम - रसभोजी नहीं कहा जाता * ।
साधु
के लिए छह कारणों से भोजन करना विहित है । उसके बिना भोजन करना कारणातिक्रान्त-दोष कहलाता है । वे छह कारण ये हैं - ( १ ) क्षुधा - निवृत्ति, (२) वैयावृत्त्य -- आचार्य आदि की वैयावृत्त्य करने के लिए, (३) ईर्यार्थ – मार्ग को देख-देखकर
२५६ अध्ययन ५ ( प्र० उ० श्लोक ९६ टि० २३२
१-० ० ० १६० आहाकम्माई दोह
२- हा० टी० प० १८१ : 'दोषवजित' संयोजनादिरहितमिति ।
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- भग० ७.१.२१ : अह भंते ! सइंगालस्स, सधूमस्स, संजोयणादोसदृट्ठस्स पाणभोयणस्स के अट्ठे पन्न े ?, गोयमा ! जेणं निग्गंथे वा निग्गंधी वा फासुएसणिज्जं असण-पाण -खाइम साइमं पडिग्गाहेता मुच्छिए गिद्ध े गढिए अभोववन्ने आहारं आहारेइ, एस णं गोयमा । सइंगाले पाण- भोयणे 1
जेणं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्जं असण- पाण- खाइम- साइमं पडिग्गाहेत्ता महयाअप्पतियं कोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! सधूमे पाण-भोयणे ।
४.
जेणं निग्ये वा निग्गंथी वा जाव पडिग्गाहेत्ता गुणुप्पायणहे अन्नदव्वेण सद्धि संजोएत्ता आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! संजोयणादोस पाण-भोयणे ।
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०७.१.२४ जे निये वा निग्गंधी वा कफामु-एसपिज् जाव साइमं पडियाला परं बत्तीसाए कुक्कुडिअडपमानताण' कवला आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! पमाणातिक्कते पाण- भोयणे । अट्ट कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे, दुबालस कुक्कु डिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे श्रवड्ढोमोयरिया, सोलस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे दुभागत्पते, चम्बी कुक्कुदिअंगमाण मेतं कवले आहारमाहारेमाणं ओमोदरिए बलीस कुक्कुडिअडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणपत्तं एतो एक्केण वेि घासेण ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामरस भोई।ते वत्तब्वं सिया ।
५- उत्त० २६.३ :
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वणवेयावच्चे
[इरिए संजमाए तह पापवतियाए पुग धम्मचिताए ।
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