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________________ २६६ अध्ययन ५ ( द्वि० उ० ) : श्लोक ३५-३६ टि० ५४-५८ श्लोक ३५ : ५४. मान-सम्मान की कामना करने वाला ( माणसम्माणकामए ख ) : वंदना करना, आने पर खड़ा हो जाना मान कहलाता है और वस्त्र पात्र आदि देना सम्मान है अथवा मान एकदेशीय अर्चना है और सम्मान व्यापक अर्चना' 1 redआलिय (दशर्वकालिक ) ५५. माया- शल्य ( मायासल्लं घ) : वहाँ शल्य का अर्थ आयुध ( शरीर में घुसा हुआ कांटा ) अथवा बाण की नोक है । जिस प्रकार शरीर में घुसी हुई अस्त्र की नोक यथा देती है उसी प्रकार जो पाप कर्म मन को व्यथित करते रहते हैं उन्हें शल्य कहा जाता है । माया, निदान और मिथ्यादर्शन – ये तीनों सतत चुभने वाले पाप कर्म हैं, इसलिए इन्हें शल्य कहा जाता है । पूजार्थी व्यक्ति बहुत पाप करता है और अपनी पूजा आदि को सुरक्षित रखने के लिए वह सम्यक् प्रकार से आलोचना नहीं करता किन्तु माया- शल्य करता है—अपने दोषों को छिपाने का प्रयत्न करता है । इलोक ३६: ५६. संयम (जप) यहाँ यश शब्द का अर्थ संयम हैं । संयम के अर्थ में इसका प्रयोग भगवती में भी मिलता है । ५७. सुरा, मेरक (सुरं वा मेरगं वा क ) : सुरा और मेरक दोनों मंदिरा के प्रकार हैं। टीकाकार पिष्ट आदि द्रव्य से तैयार की हुई मदिरा को सुरा और प्रसन्ना को मेरक मानते हैं । चरक की व्याख्या में परिपक्व अन्न के सन्धान से तैयार की हुई मदिरा को सुरा माना है । भावमिश्र के 'अनुसार उबाले हुए शालि, षष्टिक आदि चावलों को सन्धित करके तैयार की हुई मंदिरा को सुरा कहा जाता है। मैरेय तीक्ष्ण, मधुर तथा गुरु होती है" । सुरा को पुनः सन्धान करने से जो सुरा तैयार होती है, उसे मैरेय कहते हैं अथवा धाय के फूल, गुड़ तथा धान्याम्ल ( कांजी) के सन्धान से मैरेय तैयार होता है" । वृद्ध शौनक के अनुसार आसव और सुरा को मिलाकर एक पात्र में सन्धान करने से प्रस्तुत मद्य को मैरेय कहा जाता है" । आयुर्वेद - विज्ञान के अनुसार कैथ की जड़, बेर तथा खांड-इनका एकत्र सन्धान करने से मैरेयी नाम की मदिरा तैयार होती है । ५८. आत्म- साक्षी से (ससक्खं ग ) : इससे अगले श्लोक में लुक-छिपकर स्तेन वृत्ति से मद्य पीने वाले का वर्णन किया है। प्रस्तुत श्लोक में आत्म साक्षी से मद्य न पीए १- ( क ) जि० चू० पृ० २०२ : माणो बंदणअन्भुट्टाणपच्चयओ, सम्माणो तेहि वंदणादीहिं वत्थपत्तादीहिं य, अहवा माणो एगदेसे कोरड, सम्माणी पुण सारेहि इति । (ख) हा० टी० प० १८७ तत्र वन्दनाभ्युत्थानलाभनिमित्तो मानः, वस्त्रपात्रादिलाभनिमित्तः सन्मानः । २- अ० चू० पृ० १३४ : सल्लं - आउधं देधलग्गं । १-ठा० ३।३८५ । जि० To चू० पृ० २०२ : कम्मरुययाए वा सो लज्जाए वा अणालोएंतो मायासल्लमवि कुव्वति । ० टी० प० १८८ : यशः शब्देन संयमोऽभिधीयते । ४ ५ - हा० ६ - भग० ४१.१.६. : ते णं भंते ! जीवा कि आयजसेणं उववज्जंति आत्मनः संबन्धि यशो यशोहेतुत्वाद् यशः संयम आत्मयशस्तेन । ७ - हा० टी० प० १८८ : 'सुरां वा' पिष्टादिनिष्पन्नां, 'मेरकं वापि प्रसन्नाख्याम् । ८ पूर्व भा० (सूत्रस्थान ) अ० २५ पृ० २०३ : परिवक्वान्नसन्धानसमुत्पन्नां सुरां जगुः । & च० पूर्व भा० (सूत्रस्थान ) अ० २५. पृ० २०३ : 'शालिषष्टिकपिष्टादिकृतं मद्य सुरा स्मृता । १० - वही अ० २७ श्लोक १८४ । ११ ही ० २५० २०३ : मेरे धातकीपुष्यधान्यालसन्धितम् । १२- वही अ० २७ १० २४० : 'आसवस्य सुरायाश्च द्वयोरेकत्र भाजने । संपानं तहिनामा ॥ १३- वही अ० २५. पु० २०३ : 'मालूरमूलं बदरी, शर्करा च तथैव हि । एषामेकत्रसन्धानात् मंरेयी मदिरा 'स्मृता ॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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