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________________ पिडेसणा ( पिण्डेषणा ) २८७ अध्ययन ५ ( द्वि०उ० ) : श्लोक ३८, ३६, ४२ टि०५६-६३ यह बतलाया गया है। अगस्त्य चूर्णि में 'ससक्ख' का अर्थ स्वसाक्ष्य" और वैकल्पिक रूप में 'ससाक्ष्य गृहस्थों के सम्मुख किया है । जिनदास घुणि में इसका अर्थ केवल 'ससाक्ष्य' किया है। टीकाकार 'साख' का अर्थ- परित्याग में साक्षीभूत केवली के द्वारा प्रतिषिद्ध करते हैं और मद्य-पान का आत्यन्तिक निषेध बतलाते हैं। साथ ही साथ कुछ व्याख्याकार इस सूत्र को ग्लान विषयक अपवाद सूत्र मानते हैं-- इस मतान्तर का उल्लेख भी मिलता है । इलोक ३८ : ५६. उम्मत्तता ( सोंडिया ) : 'सोडिया' का अर्थ है- सुरापान की आसक्ति या गृद्धि से होने वाली उन्मत्तता । इलोक ३६ ६०. संवर ( संवरं ) : अगस्त्य सिंह ने इसका अर्थ 'प्रत्याख्यान'", जिनदास महत्तर ने संयम तथा हरिभद्र सूरि ने 'चारित्र' किया है । श्लोक ४२ : ६१. जो मेधावी ( मेहावीरु) मेधावी दो प्रकार के होते हैं - ग्रन्थ-मेधावी और मर्यादा मेधावी । जो बहुश्रुत होता है उसे ग्रन्थ- मेधावी कहा जाता है और मर्यादा के अनुसार चलने वाला मर्यादा मेधावी कहलाता है" । ६२. प्रणीत ( पणीयं ) : दूध, दही, घी आदि स्निग्ध पदार्थ या विकृति को प्रणीत रस कहा जाता है" । विस्तृत जानकारी के लिए देखिए ८.५६ का टिप्पण | ६३. मद्य प्रमाद ( मज्जप्पमाय ): यहाँ मद्य और प्रमाद भिन्नार्थक शब्द नहीं हैं, किन्तु मद्य प्रमाद का कारण होता है इसलिए मद्य को ही प्रमाद कहा गया है २ । -अ० चू० पृ० १३४ : सक्खी भूतेण अप्पणा सचेतणेण इति । २- अ० चू० पृ० १३४ : अहवा जया गिलाणकज्जे ततो 'ससक्खो ण पिबे' जणसक्खिगमित्यर्थः । ३ - जि० ० चू० पृ० २०२ : जति नाम गिलाणनिमित्तं ताए कज्जं भविज्जा ताहे 'ससक्खं नो पिबेज्जा' ससक्खं नाम सागारिएहि पाइयमाणं । ४- हा० टी० प० १८८: 'ससाक्षिक' सदापरित्यागसाक्षिके व लिप्रतिषिद्ध ं न पिबेद् भिक्षु, अनेनात्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः, सदासाक्षिभावात् । अन्ये तु ग्लानापवादविषयमेतत्सूत्रमत्यागारिकवाव्याचते । १३४ : सुरादिसु संगो 'सोंडिया' । (ख) जि० ० ० २०३ सुंडिया नाम जा सुरातनेही या डि अभ्यति, ताणि मुरादीनि मोतृणं ण अन्नं शेयह । (ग) हा० टी० ० १ 'डि' तयत्यन्ताभ २- हा० डी० प० १ ६ (क) अ० चू० पृ० : ७ -अ० चू० पृ० १३४ 'संवरं' पच्चक्खाणं । ८ -जि० चू० पृ० २०४ : संवरो णाम संजमो । ६- हा० टी० प० १८८ : 'संवरं' चारित्रम् । १० - जि० चू० पृ० २०३ : मेधावी दुविहो, त० गंथमेधावी मेरामेधावी य, तत्थ जो महंतं गंथं अहिज्जति सो गंथमेधावी, मेरामेधावीणाम मेरा मज्जाया भण्णांत तीए मेराए धावतित्ति मेरामेधावी । ११ (क) अ० चू० पृ० १३५ : पणीए पधाणे विगतीमादीते । (ख) जि० चू० पृ० २०३ : पणीतस्स नाम नेहविगतीओ भण्णति : (ग) हा० टी० प० १८६ : 'प्रणीतं' स्निग्धम् । १२- ठा० ६।४४ वृ० : 'छव्विहे पमाए पन्नत्ते तं जहा मज्जपमाए Jain Education International .. मद्यं सुरादि तदेव प्रमादकारणत्वात् प्रमादो मद्यप्रमादः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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