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________________ दसवेआलियं( दशवकालिक ) २८८ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक ४३, ४४, ४६ टि० ६४-६८ श्लोक ४३: ६४. अनेक साधुओं द्वारा प्रशंसित ( अणेगसाहपूइयं ख ): ___अगस्त्य पूणि और टीका में 'अणेगसाहु' को समस्त-पद माना है । जिनदास पूर्णि में 'अणेगं' को 'कल्लाणं' का विशेषण माना है। ६५. विपुल और अर्थ-संयुक्त ( विउलं अत्थसंजत्तं ग ) : अगस्त्य पूणि के अनुसार 'विउल' का मकार अलाक्षणिक है और विपुलार्थ-संयुक्त एक शब्द बन जाता है । विपुलार्थ-संयुक्त अर्थात् मोक्ष-पुरुषार्थ से युक्त । जिनदास चूणि में भी ऐसा किया है, किन्तु 'अत्थसंजुत्तं' की स्वतंत्र व्याख्या भी की है । टीका में 'विउलं' और 'अत्थसंजुत्तं' की पृथक् व्याख्या की है। ६६. स्वयं देखो ( पस्सह ): देखना चक्षु का व्यापार है। इसका प्रयोग पूर्ण अवधारण के लिए भी होता है, जैसे-मन से देख रहा है । यहाँ सर्वगत अवधारण के लिए "पश्यत' का प्रयोग हुआ है ---उस तपस्वी के कल्याण को देखो अर्थात् उसका निश्चित ज्ञान करो। श्लोक ४४ : ६७. अगुणों को ( अगुणाणं ख ) : जिनदास चूणि में जो नागार्जुनीय परम्परा के पाठ का उल्लेख है उसके अनुसार इसका अर्थ होता है- अगुण-रूपी ऋण न करने वाला । अगस्त्यसिंह ने इस अर्थ को विकल्प में माना है। श्लोक ४६ : ६८. तप का चोर .... भाव का चोर ( तवतेणे क......... भावतेणे ग) : तपस्वी जैसे पतले दुबले शरीरवाले को देख किसी ने पूछा- "वह तपस्वी तुम्ही हो?" पूजा-सत्कार के निमित्त "हाँ, मैं ही हैं" ऐसा कहना अथवा “साधु तपस्वी ही होते हैं", ऐसा कह उसके प्रश्न को घोटाले में डालने वाला तप का चोर कहलाता है। इसी प्रकार धर्मकथी, उच्चजातीय, विशिष्ट आचार-सम्पन्न न होते हुए भी मायाचार से अपने को वैसा बतलाने वाला क्रमश: वाणी का चोर, रूप का चोर और आचार का चोर होता है। १-(क) अ० चू० पृ० १३५ : अणगेहि 'साधूहि पूतियं पसंसियं इह-परलोगहितं । (ख) हा० टी० ५० १८६ : अनेकसाधुपूजितं, पूजितमिति–सेवितमाचरितम् । २-जि० चू० पृ० २०४ : अणेगं नाम इहलोइयपरलोइयं, जं च । ३ अ० चू० पृ० १३५ : 'विपुलं अट्ठसंजुत्तं विपुलेण' वित्थिण्णेण 'अस्थेण संजुत्त" अक्खयेण णेवाणत्थेण । ४-जि० चू०प० २०४ : 'विउलं अत्थसंजुत्त' नाम विपुलं विसालं भण्णति, सो य मोक्खो, तेण विउलेण अत्थेण संजुत्तं विउलस्थ संजुत्तं, अत्थसंजुत्तं णाम सभावसंजुत्त, ण पुण णिरत्थियंति । ५- हा० टी० ५० १८६ : 'विपुलं विस्तीर्ण विपुलमोक्षावहत्वात् 'अर्थसंयुक्तं' तुच्छता विपरिहारेण निरुपमसुखरूपमोक्षसाधनत्वात् । ६---अ० चू० पृ० १३५ : पस्सणं णयणगतो वावारो सव्वगतावधारणे वि पयुज्जति, मनसा पश्यति । तस्य पश्यतेति । ७- जि० चू० पृ० २०४ : तहा नागज्जुण्णिया तु एवं पढंति- 'एवं तु अगुणप्पेही अगुणाणं विवज्जए' अगुणा एव अणं अगुणाणं, अगति वा रिणति वा एगट्ठा, तं च अगुणरिणं अकुव्वंतो। -अ० चू० पृ० १३६ : अधवा अगुणी एवं रिणं तं विवज्जेति। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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