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________________ पिंडेसणा (पिण्डैषणा ) २८६ अध्ययन ५ ( द्वि० उ०) : श्लोक ४७-४८ टि० ६६-७१ जो किसी सूत्र और अर्थ को नहीं जानता तथा अभिमानवश किसी को पूछता भी नहीं, किन्तु व्याख्यान या वाचना देते समय आचार्य तथा उपाध्याय से सुनकर ग्रहण करता है और यह तो मुझे ज्ञात ही था'- इस प्रकार का भाव दिखाता है वह भावचोर होता है। ६६. किल्बिषिक देव-योग्य-कर्म ( देवकिब्बिसंध): देवों में जो किल्विष ( अधम जाति का ) होता है, उसे देवकिल्विष कहा जाता है । देवकिल्विष में उत्पन्न होने योग्य कर्म या भाव देवकिल्बिष कहलाता है। "देवकिब्बिसं" का संस्कृत रूप देव-किल्विष हो सकता है जैसा कि दीपिकाकार ने किया है। किन्तु वह देव-जाति का वाचक होता है इसलिए "कुब्वइ" क्रिया के साथ उसका संबंध नहीं जुड़ता । इसलिए उसका संस्कृत रूप "दैव-किल्बिष" होना चाहिए । वह कर्म और भाव का वाचक है और उसके साथ क्रिया की संगति ठीक बैठती हैं । किल्बिष देवताओं की जानकारी के लिए देखिए भगवती (६.३३) एवं स्थानाङ्ग (३.४६६) । स्थानाङ्ग में चार प्रकार का अपध्वंस बतलाया है-असुर, अभियोग, सम्मोह और देवकिल्बिष' । वृत्तिकार ने अपध्वंस का अर्थ चरित्र और उसके फल का विनाश किया है। वह आसुरी आदि भावनाओं से होता है। उत्तराध्ययन में चार भावनाओं का उल्लेख है। उनमें तीसरी भावना किल्वि षिकी है। इस भावना के द्वारा जो चरित्र का विनाश होता है उसे देवकिल्बिष-अपध्वंस कहा जाता है । स्थानाङ्ग (४.५७०) के अनुसार अरिहन्त-प्रज्ञप्त-धर्म, आचार्य-उपाध्याय और चार तीर्थ का अवर्ण बोलने वाला व्यक्ति देवकिल्बिषकत्व कर्म का बंध करता है। उत्तराध्ययन के अनुसार ज्ञान, केवली, धर्माचार्य, संघ और साधुओं का अवर्ण बोलने वाला तथा माया करने वाला किल्बिषिकी भावना करता है। प्रस्तुत श्लोक में किल्बिषिक-कर्म का हेतु माया है । देवों में किल्बिष पाप या अधम होता है उसे देवकिल्बिष कहा जाता है । माया करने वाला दैवकिल्बिष करता है अर्थात् --देवकिल्बिष में उत्पन्न होने योग्य कर्म करता है। श्लोक ४७: ७०. ( किच्चा घ) : __ 'कृत्वा' और 'कृत्यात' इन दोनों का प्राकृत रूप 'किच्चा' बनता है। श्लोक ४८: ७१. एडमूकता (गूंगापन) ( एलमूययं ख ) : एडमुकता --मेमने की तरह मैं मैं करनेवाला एडमूक कहलाता है । एडमूक को प्रव्रज्या के अयोग्य बतलाया है। १--जि० चू० पृ० २०४ : तत्थ तवतेणो णाम जहा कोइ खमगसरिसो केणावि पुच्छिओ-तुम सो खमओत्ति?, तत्थ सो पूयासक्कारनिमित्तं भणति ओमिति, अहवा भणइ -साहूणो चेव तवं करेंति, तुसिणो संविक्खइ, एस तवतेणे, वयतेणे णाम नहा कोइ धम्मकहिसरिसो वाईसरिसो अण्णेण पुच्छिओ जहा तुमे सो धम्मकहि वादी वा ?, पूयासक्कारणिमित्त भण्णइ.-आमं, तोण्हिक्को वा अच्छइ, अहवा भणइ साधुणो चेवधम्मकहिणो वादिणो य भवंति, एस वयतेणे, रूपतेणे णाम रूवस्सो कोइ रायपुत्तादी पव्वइओ, तस्स सरिसो केणइ पुच्छिओ, जहा तुमं सो अमुगोत्ति? ताहे भण्णति-आमंति, तुसिणीओ वा अच्छइ, रायपु त्तादयो एरिसा वा, एस रूपतेणे, आयारभावतेणे णाम जहा महुराए कोउहलति जहा आवस्सयचुण्णीएस आयारतेणो, भावतेणो णाम जो अणब्भुवगतं किंचि सुत्तं अत्थं वा माणावलेवेण न पुच्छइ, वक्खाणंतं वाएंतस्स वा सोऊण गेण्हइ। २-ठा० ४।५६६ : चउविहे अवद्ध से पन्नते तंजहा-आसुरे आभिओगे संमोहे देवकिब्बिसे । ३.-ठा० ४।५६६ वृ० : अपध्वंसनमपध्वंस:-चारित्रस्य तत् फलस्य वा असुरादिभावनाजनितो विनाशः । ४-उत्त० ३६.२६४ : नाणस्स केवलोणं धम्मायरियस्स संघसाहूणं । माई अवण्णवाई किबि सियं भावणं कुणइ॥ ५-हा० टी० ५० १६० : 'एलमूकताम्' अजाभाषानुकारित्वं मानुषत्वे । ६-आव० हा० वृ० पृ० ६२८ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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