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________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २८५ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक ३१, ३४ टि० ५१-५३ सथव' (पूर्वपश्चात् संस्तव) के एक भाग 'पूर्व-संस्तव' का निषेध है। इसका समर्थन आयार घुला के 'वं दिय बंदिय' शब्द से होता है। वृत्तिकार शीलाङ्कसूरि के अनुसार इसका अर्थ यह है कि मुनि गृहपति की स्तुति कर याचना न करे । आयार चूला के टिप्पणीगत दोनों वाक्य और प्रस्तुत श्लोक के उत्तरार्द्ध के दोनों चरण केवल अर्थ-दृष्टि से ही नहीं किन्तु शब्द-दृष्टि से भी प्रायः तुल्य हैं । आचाराङ्ग के 'वंदिय' का अर्थ यहाँ 'वंदमाणो' के द्वारा प्रतिपादित हुआ है। निशीथ में 'पूर्व-संस्तव' के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। प्रश्न व्याकरण (संवरद्वार १) में 'ण वि वंदणाए' के द्वारा उक्त अर्थ का प्रतिपादन हुआ है। इन के आधार पर 'वंदमाणो' पाठ ही संगत है । वन्दमान-वन्दना करते हुए व्यक्ति से याचना नहीं करनी चाहिए - यह अर्थ चूर्णिकार और टीकाकार को अभिप्रेत है। किन्तु यह व्याख्या विशेष अर्थवान् नहीं लगती और इसका कहीं आधार भी नहीं मिलता। 'वंदमाणो न जाएज्जा' इसका विशेष अर्थ भी है, आगमों में आधार भी है, इसलिए अर्थ की दृष्टि से भी 'वंदमाणो' पाठ अधिक उपयुक्त है। श्लोक ३१ ५१. छिपा लेता है (विणिगृहई ख): इसका अर्थ है-सरस आहार को नीरस आहार से ढक लेता है। श्लोक ३४: ५२. मोक्षार्थी (आययट्ठी ख): इस शब्द को अगस्त्यधूणि में 'आयति-अर्थी' तथा जिनदास धूणि और टीका में 'आयत-अर्थी' माना है। ५३. रूक्षवृत्ति (लूहवित्ती ) : रूक्ष शब्द का अर्थ रूखा और संयम-दोनों होता है। जिनदास धूणि में रूक्षवृत्ति का अर्थ रूक्ष-भोजी और टीका में इसका अर्थ संयम-वृत्ति किया है। १-- आ० चू० ११६२ : 'नो गाहावई वंदिय-वंदिय जाएज्जा' नो वणं फरुसं वएज्जा'। २-आ० चू० ११६२ ०० : गृहपति 'वंदित्वा' वाग्भिः स्तुत्वा प्रशस्य नो याचेत । ३ –नि० २.३८ : जे भिक्खू पुरे संथवं पच्छा संथवं वा करेइ करेंतं वा सातिज्जति । चू० : 'संथवो' थुती, अदत्ते दाणे पुव्वसंथवो, दिण्णे पच्छासंथवो। जो तं करेति सातिज्जति वा तस्स मासलहुं । ४--(क) अ० चू० पृ० १३२ : 'वंदमाणं ण जाएज्जा' 'जहा अहं वंदितो एतेण, जायामि णं, भद्दो अवस्स दाहिति । सो वंदिय मेत्तेण जातिओ चितेज्ज भणेज्ज वा-चोरते वंदिहि त्ति, एणातियं एवमादि दोसा। (ख) जि० चू० पृ० २०० : 'वंदमाणं न जाइज्जा जहा अहमेतेण वंदिउत्ति अवस्समेसो दाहेति, तत्थ विपरिणामादिदोसा संभवंति, पुरिसं पुण वंदमाणं वंदमाणं अन्नं किंचि वक्खेवं काऊण अण्णतो वा मग्गिऊण पुणो तत्थेव गंतूण मगइ, जइ ताहे पुणो वंदति तो मग्गिओ जइ कदापि पडिसेहेज्जा तत्थ नो अण्णं फरुसं वए, जहा होणं ते वंदितं, तुमं अवंदओ चेव, एवमादि। (ग) हा० टी० ५० १८६ : वन्दमानं सन्तं भद्रकोऽयमिति न याचेत, विपरिणामदोषात्, अन्नाद्यभावेन याचितादाने न चैनं परुषं ब्रू यात्-वृथा ते वन्दनमित्यादि । ५- (क) जि० चू० पृ० २०१ : विविहेहि पगारेहि गृहति विणिगृहति, अप्पसारियं करेइ, अन्नेण अन्तपन्तेण ओहाडेति । (ख) हा० टी० ५० १८७ : 'विनिगूहते' अहमेव भोक्ष्य इत्यन्तप्रान्तादिनाऽऽच्छादयति । ६-(क) अ० चू० पृ० १३३ : [आयती ] आगामिणि काले हितमायतीहितं, आतति हितेण अत्थी आपस्थाभिलासी। (ख) जि० चू० पृ० २०२ : आयतो-मोक्खो भण्णइ, तं आययं अत्थयतीति आययट्ठी । (ग) हा० टी० ५० १८७ : 'प्रायतार्थी' मोक्षार्थी । ७-(क) जि० चू० पू० २०२ : लूहाइ से वित्ती, एतस्स ण णिहारे गिद्धी अस्थि । (ख) हा० टी० ५० १८७ : 'रूक्षवृत्तिः' संयमवृत्तिः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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