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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
अध्ययन ८ : श्लोक ४१ टि० १०६-११२
४०६ श्लोक ४१ :
१०६. निद्रा को बहुमान न दे (निद्वं च न बहमन्नेज्जा २ ) :
बहुमान न दे अर्थात् प्रकामशायी न बने --सोता ही न रहे'। सूत्रकृताङ्ग में बताया है कि सोने के समय में सोए "सयणं सयणकाले ।" वृत्तिकार के अनुसार अगीतार्थ दो प्रहर तक सोए और गीतार्थ एक प्रहर तक। ११०. अट्टहास ( संपहास ख ) :
संप्रहास अर्थात् समुदित रूप में होने वाला सशब्द हास्य। जिनदास चणि और टीका में 'सप्पहासं' पाठ है। उसका अर्थ है अट्टहास। १११. मैथुन की कथा में (मिहोकहाहि म ) :
___अगस्त्यसिंह ने इसका अर्थ स्त्री-सम्बन्धी रहस्य-कथा किया है। जिनदास महत्तर के अनुसार इसका अर्थ स्त्री-सम्बन्धी या भक्त, देश आदि सम्बन्धी रहस्यमयी कथा है । टीकाकार ने इसे राहस्यिक-कथा कहा है । आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन और ओघनियुक्ति की टीका में भी इसका यही अर्थ मिलता है । ११२. स्वाध्याय में ( सज्झायम्मिघ):
स्वाध्याय का अर्थ है-विधिपूर्वक अध्ययन । इसके पाँच प्रकार हैं : १. वाचना-पढ़ाना। २. प्रच्छना–संदिग्ध विषय को पूछना । ३. परिवर्तना-कण्ठस्थ किए हुए ज्ञान का पुनरावर्तन करना। ४. अनुप्रेक्षा-अर्थ-चिन्तन करना । ५. धर्मकथा-श्रुत आदि धर्म की व्याख्या करना ।
१-(क) जि० चू० पृ० २८७ : बहुमनिज्जा नाम नो पकामसायी भवेज्जा ।
(ख) हा० टी० प० २३५ : 'निद्रां च न बहुमन्येत', न प्रकामशायी स्यात् । २.-सू० २.१.१५ पृ० ३०१ ७० : शय्यतेऽस्मिन्निति शयनं-संस्तारकः स च शयनकाले, तत्राप्यगीतार्थानां प्रहरद्वयं निद्राविमोक्षो ___ गीतार्थानां प्रहरमेकमिति । ३-अ० चू० पृ० १६५ : समेच्च समुदियाणं पहसणं सतिरालावपुव्वं संपहासो। ४- (क) जि० चू० पृ० २८७ : सप्पहासो नाम अतीव पहासो सप्पहासो, परवादिउद्धसणादिकारणे जइ हसेज्जा तहावि सप्पहासं
विवज्जए। (ख) हा० टी०प० २३५ : 'सप्रहासं च' अतीवहासरूपम् । ५- अ० चू० पृ० १६५ : मिधुकहाओ रहस्सकधाओ इत्थी संबद्धाओ तथाभूताओ वा तायो । ६-जि० चू० पृ० २८७ : मिहोकहाओ रहसियकहाओ भण्णंति, ताओ इस्थिसंबद्धानो वा होज्जा अण्णाओ वा भत्तदेसकहादियायो
तासु। ७-हा० टी० प० २३५ : 'मिथ: कथासु' राहस्यिकोषु । ८-(क) आ० ६।१।१० : गढिए मिहोकहासु, समयंमि नायसुए विसोगे अदक्खु । टोका-'ग्रथित:' अवबो 'मिथः' अन्योन्यं
'कथासु' स्वैरकथासु। (ख) उत्त० २६.२६ : पडिलेहणं कुणंतो, मिहोकहं कुणइ जणवयकहं वा । (बृहद्वृत्ति) 'मिथः कथां' परस्परसंभाषणात्मिकां ..
___ स्त्र्यादिकथोपलक्षणमेतत् । (ग) ओ० नि० वृ० २७२ : 'मिथः कथां' मैथुनसंबद्धाम् । है-औप० ३० : सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते तं जहा-वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा।
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