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आयारपणिही (आचार-प्रणिधि)
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अध्ययन ८ : श्लोक ४२-४३ टि० ११३-११७
जिनदास धुणि में 'अज्झयणमि रओ सया' पाठ है और 'अध्ययन' का अर्थ स्वाध्याय किया है। हरिभद्रसूर ने स्वाध्याय का अर्थ वाचना आदि किया है।
श्लोक ४२ ११३. श्रमण-धर्म में ( समणधम्मम्मिक):
यहाँ अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय और प्रतिलेखन आदि श्रमण-चर्या को 'श्रमण-धर्म' कहा है । सूत्रकार का आशय यह है कि अनुप्रेक्षाकाल में मन को, स्वाध्याय-काल में वचन को और प्रति लेखन-काल में काया को श्रमण-धर्म में लगा देना चाहिए और भङ्ग-प्रधान (विकल्प-प्रधान) श्रुत में तीनों योगों का प्रयोग करना चाहिए। उसमें मन से चिन्तन, वचन से उच्चारण और काया से लेखन--ये तीनों होते हैं। ११४. यथोचित ( धुवं ख ) :
ध्रुव का शब्दार्थ है निश्चित । यथोचित इसका भावार्थ है । जिस समय जो त्रिया निश्चित हो, जिसका समाचरण उचित हो उस समय वही क्रिया करनी चाहिए। ११५. लगा हुआ ( जुत्तो ग ) :
युक्त का अर्थ हैं व्याप्त—लगा हुआ। ११६. फल (अठंग ) :
यहाँ अर्थ शब्द फलवाची है । इसका दूसरा अर्थ है ज्ञानादि रूप वास्तविक अर्थ ।
श्लोक ४३ : ११७. श्लोक ४३ :
पिछले श्लोक में कहा है-श्रमण-धर्म में लगा हुआ मुनि अनुत्तर फल को प्राप्त होता है, उसी को इस श्लोक के प्रथम दो चरणों में स्पष्ट किया है । श्रमण-धर्म में मन, वाणी और शरीर का प्रयोग करने वाला इहलोक में वन्दनीय होता है । श्रमण-धर्म में एक दिन के दीक्षित साधु को भी लोग विनयपूर्वक वन्दन करते हैं और वह परलोक में उत्तम स्थान में उत्पन्न होता है । आगामी दो चरणों में श्रमणधर्म की उपलब्धि के दो उपाय बतलाए हैं-(१) बहुश्रुत की उपासना और (२) अर्थ-विनिश्चय के लिए प्रश्न ।
१-जि० चू०प० २८७ : 'अज्झयणमि रओ सया' अज्झयणं सज्झाओ भण्णइ, तंमि सज्झाए सदा रतो भविज्जत्ति। २-हा० टी०प० २३५ : 'स्वाध्याये' वाचनादौ । ३- अ० चू० पृ० १६५ : जोगं मणोवयणकायमयं अणुप्पेहणसज्झायपडिलेहणादिसु पत्तेयं समुच्चयेण वा च सद्देण नियमेण भंगितसुते
तिविधमवि। ४- (क) अ० चू० १० १६५ : अप्पणो काले अण्णोणमबाहंत धुवं । (ख) हा० टी०प० २३५ : 'ध्र वं' कालाद्यौचित्येन नित्यं संपूर्ण सर्वत्र प्रधानोपसर्जनभावेन वा, अनुप्रेक्षाकाले मनोयोगमध्ययन
काले वाग्योगं प्रत्युपेक्षणाकाले काययोगमिति । ५-हा० टी०प० २३५ : 'युक्त' एवं व्यापृतः । ६-अ० चू० पृ० १६५ : अत्थो सद्दो इह फलवाची। ७-हा० टी०प० २३५ : भावार्थ ज्ञानादिरूपम् ।। ८-अ० चू० पृ० १६५-६६ : इहलोगे एगदिवसदिक्खितोवि विणएणं वंदिज्जते य पूतिज्जते य अवि रायरायोहिं । परलोए
सुकुलसंभवादि । ९-अ० चू० पृ० १६६ : सव्वस्सेयस्स उवलंभणत्थं बहुसुतं पज्जुवासेज्ज पज्जुवासेज्जमाणो पुच्छेज्जत्थविणिच्छयं ।
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