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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) ४०८ अध्ययन ८ : श्लोक ४४-४५ टि० ११८-१२३ ११८. बहुश्रुत ( बहुस्सुयं" ) : जो आगम-वृद्ध हो—जिसने श्रुत का बहुत अध्ययन किया हो, वह बहुश्रुत कहलाता है। जिनदास पूणि ने आचार्य, उपाध्याय आदि को बहुश्रुत माना है । बहुश्रुत तीन प्रकार के होते हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । प्रकल्पाध्ययन (निशीथ) का अध्ययन करने वाला जघन्य, चतुर्दश पूर्वो का अध्ययन करने वाला उत्कृष्ट तथा प्रकल्पाध्ययन और चतुर्दश पूर्वो के बीच का अध्ययन करने वाला मध्यम बहुश्रुत कहलाता है। ११६. अर्थ-विनिश्चय ( अत्यविणिच्छयं घ ) : अर्थ-विनिश्चय-तत्त्व का निश्चय, तत्त्व की यथार्थता। श्लोक ४४: १२०. श्लोक ४४: पिछले श्लोक में कहा है-बहुश्रुत की पर्युपासना करे । इस श्लोक में उसकी विधि बतलाई गई है । १२१. संयमित कर' ( पणिहायख): इसका अर्थ है - हाथों को न नचाना, पैरों को न फैलाना और शरीर को न मोड़ना । १२२. आलीन.. और गुप्त होकर ( अल्लीणगुत्तो ग) : आलीन का शाब्दिक अर्थ है-थोड़ा लीन । तात्पर्य की भाषा में जो गुरु के न अति-दूर और न अति-निकट बैठता है, उसे 'आलीन' कहा जाता है। जो मन से गुरु के वचन में दत्तावधान और प्रयोजनवश बोलने वाला होता है, उसे 'गुप्त' कहा जाता है । शिष्य को गुरु के समीप आलीन-गुप्त हो बैठना चाहिए। श्लोक ४५: १२३. श्लोक ४५ पिछले श्लोक में कहा है—गुरु के समीप बैठे । इस श्लोक में गुरु के समीप कैसे बैठना चाहिए उसकी विधि बतलाई गई है। शिष्य के लिए गुरु के पाव-भाग में, आगे और पीछे बैठने का निषेध है। इसका तात्पर्य है कि पाश्र्व-भाग में, कानों की समश्रेणि में न बैठे। वहाँ बैठने पर शिष्य का शब्द सीधा गुरु के कान में जाता है। उससे गुरु की एकाग्रता का भंग होता है । इस आशय से कहा है कि १-हा० टी०प० २३५ : 'बहुश्रुतम्' आगमवृद्धम् । २-जि० चू० पृ० २८७ : बहुसुयगहणेणं आयरियउवझायादीयाण गहणं । ३--नि० पी० भा० (गाथा ४६५) : बहुस्सुयं जस्स सो बहुस्सुतो, सो तिविहो-जहण्णो मज्झिमो उक्कोसो । जहण्णो जेण पकप्पज्झयणं अधीत, उक्कोसो चोदस्सपब्वधरो, तम्मज्झे मज्झिमो। ४-(क) अ० चू० पृ० १९६ : अत्थविनिच्छयो तब्भावनिण्णयो त । (ख) जि० चू० पृ० २८७ : विणिच्छओ णाम विणिच्छओत्ति वा अवितहभावोत्ति वा एगट्ठ। (ग) हा० टी० प० २३५ : 'अर्थविनिश्चयम्' अपायरक्षक कल्याणावहं वार्थावितथभावमिति । ५–अ० चू० पु. १६६ : पज्जुवासणे अयं बिही-'हत्थं पायं च कायं च' सिलोगो। ६-हा० टी० ५० २३५ : 'प्रणिधाये ति संयम्य । -जि० चू० पृ० २८८ : पणिहाय णाम हत्थेहि हत्थनट्टगादीणि अकरं पाएहि पसारणादीणि अकुन्वंतो काएण सासणगादीणि अकुव्वंतो। ८--जि० चू० पृ० २८८ : अल्लीणो नाम ईसिलीणो अल्लोणो, णातिदूरत्थो ण वा अच्चासण्णो । ६-अ० चू० पृ० १९६ : मणसा गुरुवयणे उवयुत्तो। १०-जि० चू० पृ० २८८ : वायाए कज्जमेत्तं भासंतो। ११-अ० चू० पृ० १९६ : तस्स थाणनियमणमिमं । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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