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पिडेसणा (पिण्डषणा)
२३३ अध्ययन ५ (प्र० उ०): श्लोक ४०-४२ टि०१४५-१४७
श्लोक ४० १४५. काल-मासवती ( कालमासिणी ख ) :
जिसके गर्भ का प्रसूतिमास या नवां मास चल रहा हो उसे काल-मासवती (काल-प्राप्त गर्भवती) कहा जाता है।
जिनदास चूणि और टीका के अनुसार जिन-कल्पिक मुनि गर्भवती स्त्री के हाथ से भिक्षा नहीं लेते, फिर चाहे वह गर्भ थोड़े दिनों का ही क्यों न हो। काल-मासवती के हाथ से भिक्षा लेना 'दायक' (एषणा का छट्ठा) दोष है।
श्लोक ४१: १४६. श्लोक ४१:
अगस्त्य पूणि में (अगस्त्य धुणिगत क्रमांक के अनुसार ५६ वें और ५७ वें तथा टीका के अनुसार ४० वें और ४२ वें श्लोक के पश्चात्) "तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं"..--ये दो चरण नहीं दिये हैं और देंतियं पडियाइवखे, न मे कप्पइ तारिस'---इन दो चरणों के आशय को अधिकार-क्रम से स्वतः प्राप्त माना है। वैकल्पिक रूप में इन दोनों श्लोकों को द्वयर्थ (छह चरणों का श्लोक) भी कहा है।
श्लोक ४२ : १४७. रोते हुए छोड़ ( निक्खिवित्तु रोयंत ग ) :
जिनदास चूणि के अनुसार गच्छवासी स्थविर मुनि और गच्छ-निर्गत जिनकल्पिक-मुनि के आचार में कुछ अन्तर है। स्तनजीवी बालक को स्तन-पान छुड़ा स्त्री भिक्षा दे तो, बालक रोए या न रोए, गच्छवासी मुनि उसके हाथ से भिक्षा नहीं लेते। यदि वह बालक कोरा स्तनजीवी न हो, दूसरा आहार भी करने लगा हो और यदि वह छोड़ने पर न रोए तो गच्छवासी मुनि उसकी माता के हाथ से भिक्षा ले सकते हैं । स्तनजीवी बालक चाहे स्तन-पान न कर रहा हो फिर भी उसे अलग करने पर रोने लगे उस स्थिति में गच्छवासी मुनि भिक्षा नहीं लेते।
गच्छ-निर्गत मुनि स्तनजीवी बालक को अलग करने पर, चाहे वह रोए या न रोए, स्तन-पान कर रहा हो या न कर रहा हो, उसकी माता के हाथ से भिक्षा नहीं लेते । यदि वह बालक दूसरा आहार करने लगा हो उस स्थिति में उसे स्तन-पान करते हुए को छोड़कर, फिर चाहे वह रोए या न रोए, भिक्षा दे तो नहीं लेते और यदि वह स्तन-पान न कर रहा हो फिर भी अलग करने पर रोए तो भी भिक्षा नहीं लेते । यदि न रोए तो वे भिक्षा ले सकते हैं।
१-(क) अ० चू० पृ० १११ : प्रसूतिकालमासे 'कालमासिणी'।
(ख) जि० चू० पृ० १८० : कालमासिणी नाम नवमे मासे गन्भस्स वट्टमाणस्स ।
(ग) हा० टी० प० १७१ : 'कालमासवती' गर्भाधानान्नवममासवती। २-(क) जि० चू० पृ० १८० : जा पुण कालमासिणी पुवुट्ठिया परिवेसेंती य थेरकप्पिया गेण्हंति,, जिणकप्पिया पुण जद्दिवसमेव
आवन्नसत्ता भवति तओ दिवसाओ आरद्ध परिहरति । (ख) हा० टी० ५० १७१ : इह च स्थविरकल्पिकानामनिषीदनोत्थानाभ्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकं, जिनकल्पिकानां
त्वापन्नसत्वया प्रथमदिवसादारभ्य सर्वथा दीयमानमकल्पिकमेवेति सम्प्रदायः । ३---अ० चू० पृ० ११२ : पुवभणितं सुत्त सिलोगद्ध वित्तीए अणुसरिज्जति -बेतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पति तारिसं। अहवा
दिवड्ढसिलोगो अत्यनिगमणवसेणं । ४.--(क) अ० चू०पृ० ११२ : गज्छवासीण थणजीवी थणं पियंतो निक्खित्तो रोवतु वा मा वा अग्गहणं, अह अपिबंतो णिक्खिस्तो
रोवंते (अग्गहणं अरोवंते) गहणं, अह भत्तं पि आहारेति तं पिबंते निक्वित्ते रोवते अग्गहणं, अरोवंते गहणं । गच्छनिग्गत्ताण थणजीविम्मि णिक्खित्ते पिबंते (अपिबते) वा रोयंते (अरोयते) वा अग्गहणं, भत्ताहारे पिबंते निक्खित्ते
रोयमाणे अरोयमाणे वा अग्गहणं, अपिबते रोयमाणे अग्गहणं, अरोयमाणे गहणं । (ख) जि० चू० पृ० १८० : तत्थ गज्छवासी जति थणजीवी णिक्खित्तो तो ण गेण्हति रोवतु वा मा वा, अह अन्नपि आहारेति
तो जति न रोवइ तो गेण्हति, अह अपियंतओ णिक्खिस्तो थणजीवी रोवई तो ण गेण्हं ति, गच्छनिग्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवउ वा मा वा अपियंतओ पियंतिओ वा न गेण्हंति, जाहे अन्नपि आहारे पयत्तो भवति ताहे जइ पिघं
तओ तो रोवइ मा वा ण गेण्हंति, अपियन्तओ जदि रोवइ परिहरति अरोवते गेहति । (ग) हा० टी० ५० १७२ : चूणि का ही पाठ यहाँ सामान्य परिवर्तन के साथ 'अत्रायं वृद्धसम्प्रदाय' कहकर उद्धृत किया है।
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