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दसवेआलियं ( दशवेकालिक )
यह स्थूल-दर्शन से बहुत साधारण सी बात लगती है, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो इसमें अहिंसा का पूर्ण दर्शन होता है । दूसरे को थोड़ा भी कष्ट देकर अपना पोषण करना हिंसा है। अहिंसक ऐसा नहीं करता इसलिए वह जीवन निर्वाह के क्षेत्र में भी बहुत सतर्क रहता है । उक्त प्रकरण उस सतर्कता का एक उत्तम निदर्शन है ।
शिष्य पूछता है – बालक को रोते छोड़कर भिक्षा देने वाली गृहिणी से लेने में क्या दोष है ? आचार्य कहते हैं बालक को नीचे कठोर भूमि पर रखने से एवं कठोर हाथों से उठाने से बालक में अस्थिरता आती है। इससे परिताप दोष होता है। बिल्ली आदि उसे उठा ले जा सकती है' ।
इलोक ४४ :
१४८. शंका- पुक्त हो ( संकिय
इस लोक में 'शंकित' (एषा के पहले दोष युक्त भिक्षा का निषेध किया गया है। आहार युद्ध होने पर भी कल्पनीय और अकल्पनीय – उद्गम, उत्पादन और एषणा से शुद्ध अथवा अशुद्ध का निर्णय किए बिना लिया जाए वह 'शंकित' दोष है । शंका सहित लिया हुआ आहार शुद्ध होने पर भी कर्म-बन्ध का हेतु होने के कारण अशुद्ध हो जाता है । अपनी ओर से पूरी जाँच करने के बाद लिया हुआ आहार यदि अशुद्ध हो तो भी कर्म-बन्ध का हेतु नहीं बनता ।
श्लोक ४५-४६
२३४ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक ४४-४७ टि० १४८-१५०
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१४. श्लोक ४५-४६ :
उभिन्न दो प्रकार का होता है
इन दोनों लोकों में 'उदभिन्न' नामक ( उद्गम के बारहवें दोषयुक्त शिक्षा का निषेध है 'पिहित - उद्भिन्न' और 'कपाट उद्भिन्न' । चपड़ी आदि से बंद पात्र का मुंह खोलना 'पिहित उद्भिन्न' कहलाता है | बन्द किवाड़ का खोलना 'कपाट- उद्भिन्न' कहलाता है । पिधान सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार का हो सकता है । उसे साधु के लिए खोला जाए और फिर बंद किया जाए वहाँ हिंसा की सम्भावना है। इसलिए 'पिहित उदभिन्न' भिक्षा निषिद्ध है किवाड़ खोलने में अनेक जीवों के वकी सम्भावना रहती है इसलिए 'कपाट - उद्भिन्न' भिक्षा का निषेध है। इन श्लोकों में 'कपाट उभिन्न' भिक्षा का उल्लेख नहीं है । इन दो भेदों का आधार पिण्डनिर्युक्ति ( गाथा ३४७ ) है ।
तुलना के लिए देखिए - आयार चूला ११६०, ६१ ।
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इलोक ४७ :
१५०. पानक (पाण
हरिभद्र ने 'पानक' का अर्थ आरनाल ( कांजी ) किया है । आगम-रचनाकाल में साधुओं को प्राय: गर्म जल या पानक ( तुषोदक, वोदक, सौवीर आदि) ही प्राप्त होता था । आधार वूला १।१०१ में अनेक प्रकार के पानकों का उल्लेख है । प्रवचन सारोद्धार के अनुसार 'सुरा' आदि को 'पान', साधारण जल को 'पानीय' और द्राक्षा, खर्जूर आदि से निष्पन्न जल को 'पानक' कहा जाता है ।
१ (क) अ० ० पू० ११२ एल्थ बोसा सुकुमालसरीरस्स वरेहि हत्थेहि सयगीए वा पीडा, मज्जातो या वाणाचहरणं करेज्जा ।
(ख) जि० चू० पृ० १८० सीसो आह को सत्य दोसोत्ति ?, आपरिओ आहतर निविष्यमाणस्स सहित् घेप्यमाणस्स य अपरित्तत्तणेण परितावणादोसो मज्जाराइ व अवधरेज्जा ।
(ग) हा० टी० प० १७२ ।
२- पि० नि० गा० ५२६-५३० ।
३ – हा०
० टी० १० १७३ : 'पानकं' च आरनालादि ।
४- प्रव० सारो० गा० १४१७ : पाणं सुराइयं पाणियं जलं पाणगं पुणो एत्थ । दक्खावाणियपमुहं
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