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दसवेलियं (दशर्वकालिक )
१४०. इलोक ३७ :
इस श्लोक में 'अनिष्ट' नामक उद्यम के पंद्रह दोष युक्त मिला का निषेध किया गया है अनिका अर्थ है अननुज्ञात 1 वस्तु के स्वामी को अनुज्ञा -- अनुमति के बिना उसे लेने पर 'उड्डाह' अपवाद होता है, चोरी का दोष लगता है, निग्रह किया जा सकता है । इसलिए मुनि को वस्तु के नायक की अनुमति के बिना उसे नहीं लेना चाहिए ।
१४१. स्वामी या भोक्ता हों (भुंजमाणाणं क )
'भुञ्ज्' धातु के दो अर्थ हैं - पालना और खाना । प्राकृत में धातुओं के 'परस्मै' और 'आत्मने' पद की व्यवस्था नहीं है, इसलिए संस्कृत में 'भुंजमाणाणं' शब्द के संस्कृत रूपान्तर दो बनते हैं- ( १ ) भुञ्जतो: और (२) भुञ्जानयोः । एक ही वस्तु के दो स्वामी हों अथवा एक ही भोजन को दो व्यक्ति खाने वाले हों ।'
'दोह तु भुंजमाणाणं' का अर्थ होता है १४२. देवे ( पहिए ) :
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२३२ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ३७ ३६ टि०१४०-१४४ श्लोक ३७ :
उसके चेहरे के हाव-भाव आदि से उसके मन के अभिप्राय को जाने ।
मुनि को वस्तु के दूसरे स्वामी का, जो मीन बैठा रहे अभिप्राय नेत्र और मुँह की चेष्टाओं से जानने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि उसे कोई आपत्ति न हो, अपना आहार देना इष्ट हो तो मुनि उसकी स्पष्ट अनुमति के बिना भी एक अधिकारी द्वारा दत्त आहार ले सकता है और यदि अपना आहार देना उसे इष्ट न हो तो मुनि एक अधिकारी द्वारा दत्त आहार भी नहीं ले सकता है ।
श्लोक ३८
१४३. श्लोक ३८
इस श्लोक में 'निसृष्ट' ( अधिकारी के द्वारा अनुमत) भक्त-पान लेने का विधान है। इलोक ३६ :
( भुज्जमाणं विवज्जेज्जा ख
१४४. यह सा रही हो तो मुनि उसका विवर्जन करे
दोहद- पूर्ति हुए बिना गर्भ का पात या मरण हो सकता है इसलिए गर्भवती स्त्री की दोहद-पूर्ति (इच्छा पूर्ति) के लिए जो आहार बने वह परिमित हो तो उसकी दोहद-पूर्ति के पहले मुनि को नहीं लेना चाहिए ।
१ – (क) अ० चू० पृ० ११० : "भुज पालनडम्भवहरणयोः" इति एवं विसेसेति – अन्भवहरमाणाण रवखताण वा विच्छ्पाताति अभोयणमवि सिया ।
(ख) जि० चू० पृ० १७६ : भुंजसो पालने अब्भवहारे च अब्भवहारे दो जधा एक्कमि वट्टियाए वे जणा भोतुकामा । (ग) हा० डी० प० १०१
२ (क) अ० चू० पृ० ११० :
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तत्थ पालने ताव एस साहुपायोग्गस्स दोन्नी सामिया
पालनां कुर्वतो एकस्य वस्तुनः स्वामिनरिश्वर्व एवं नान्योः अभ्यवहारायोद्यतयोरपि योजनीय, यतो भुजिः पालनेऽभ्यवहारे च वर्तत इति ।
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आगारिति बेागुणेहि मासाविसेस करपेहि । मुह. इणयणविकारेहि य, घेप्पति अंतरगतो भावो ||
अहरणीय दोहामारभंति तं चि वर्तमानसामी० [पाणि०३.३.१३२] इति वर्तमानमेव । णाताभिष्यातस्य जदि इट्ठं तो घेप्पति, ण अण्णा ।
(ख) जि० चू० पृ० १७९: णेत्तादीहिं विगारेहिं अभणतत्सवि नज्जद जहा एयस्स दिज्जमाणं वियत्तं न वा इति अवियत्त तो णो पडिगेज्जा |
(ग) हा० टी० प० १७१
विकारः किमस्येदमिष्टं दीयमानं नवेति इष्टं चेद् गृहणीयान्न चेन्नैवेति ।
अपि अभिप्रायं तस्य द्वितीयस्य प्रत्युपेक्षेत नेत्रवक्त्रादि
अ० पू० पृ० १११ इसे दोगा परिमितवणीतं दिष्ये सेनमज्जति दोहो तीसे तस्स वा गन्भस्स सण्णीभूतस्स अप्पत्तियं होज्ज ।
(ख) जि० चू० पृ० १८० तत्थ जं सा भुजइ कोइ ततो देइ तं ण गेव्हियव्वं, को दोसो ? कदाइ तं परिमियं भवेज्जा, तीए य सद्धा ण विणीया होज्जा, अविणीये य डोहले गन्भपडणं मरणं वा होज्जा । (ग) हा०
टी०
० प० १७१ तत्र भुज्जमानं तया विवज्यं मा भूतस्या अल्पत्वेनाभिलाषानिवृत्त्या गर्भपतनादिदोष इति ।
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