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________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा ) ४६ अध्ययन ३ : श्लोक १ टि० ५-६ 'ग्रंथ' का अर्थ है बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह । जो उससे --ग्रंथ से -सर्वथा मुक्त होता है, उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं। आगम में 'निर्ग्रन्थ' शब्द की व्याख्या इस प्रकार है : “जो राग-द्वेष रहित होने के कारण अकेला है, बुद्ध है, निराथव है, संयत है, समितियों से युक्त है, सुसमाहित है, आत्मवाद को जानने वाला है, विद्वान् है, बाह्य और आभ्यन्तर- दोनों प्रकार से जिसके स्रोत छिन्न हो गए है, जो पूजा, सत्कार और लाभ का अर्थी नहीं है, केवल धर्मार्थी है, धर्मविद् है, मोक्ष-मार्ग की ओर चल पड़ा है, साम्य का आचरण करता है, दान्त है, बन्धनमुक्त होने योग्य है और निर्मम है—वह निर्ग्रन्थ कहलाता है।" उमास्वाती ने कर्म-ग्रंथि की विजय के लिए यत्न करने वाले को निर्ग्रन्थ कहा है। ५. महषियों ( महेसिणं ): 'महेसी' के संस्कृत रूप 'महर्षि' या 'महैपी'-दो हो सकते हैं। महर्षि अर्थात् महान् ऋषि और महैषी अर्थात् महान्—मोक्ष की एषणा करने वाला । अगस्त्यसिंह स्थविर और टीकाकार को दोनों अर्थ अभिमत हैं। जिनदास महत्तर ने केवल दूसरा अर्थ किया है । हरिभद्र सूरि लिखते हैं : "सुस्थितात्मा, विप्रमुक्त, वायी, निर्ग्रन्थ और महर्षि में हेतुहेतुमद्भाव है । वे सुस्थितात्मा हैं, इसीलिए विप्रमुक्त हैं । विप्रमुक्त हैं इसीलिए वायी हैं, वायी हैं इसीलिए निर्ग्रन्थ हैं और निर्ग्रन्थ हैं इसीलिए महर्षि हैं। कई आचार्य इनका सम्बन्ध व्युत्क्रम--- पश्चानुपूर्वी से बताते हैं --- वे महर्षि हैं इसीलिए निर्ग्रन्थ हैं, निर्ग्रन्थ हैं इसीलिए वायी हैं, वायी हैं इसीलिए विप्रमुक्त हैं और विप्रमुक्त हैं इसीलिए सुस्थितात्मा हैं।" ६. उन के लिए ( तेसि क ): श्लोक २ से ६ में अनेक कार्यों को अनाचीर्ण कहा है । प्रथम श्लोक में बताया है कि ये कार्य निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए अनाचीर्ण हैं। प्रश्न हो सकता है ये कार्य निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए ही अनाचीर्ण क्यों कहे गए? इसका उत्तर निर्ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त महर्षि, संयम में सुस्थित, विप्रमुक्त, वायी आदि विशेषणों में है । निर्ग्रन्थ महान् की एषणा में रत होता है। वह महाव्रती होता है—संयम में अच्छी तरह स्थित होता है। वह विप्रमुक्त होता है। वह त्रायी---अहिंसक होता है । बाद के श्लोकों में बताए गये कार्य सावध, आरम्भ और हिंसा-बहल हैं, निर्ग्रन्थ संयमी के जीवन से विपरीत हैं, गृहस्थों द्वारा आचरित हैं । अतीत में निर्ग्रन्थ महर्षियों ने उनका कभी आचरण नहीं किया । इन सब कारणों से मुक्ति की कामना से उत्कट साधना में प्रवृत्त निर्ग्रन्थों के लिए ये अनाचीर्ण हैं। १-अ० चू० पृ०५६ : निग्गंथाणं ति विष्पमुक्कत्ता निरूविज्जति। २-सू० १.१६.६ : एत्थवि णिग्गंथे एगे एगविदू बुद्धे संछिन्नसोए सुसंजए सुसमिए सुसामाइए आतप्पवादपत्ते विऊ दुहओवि सोयप लिच्छिन्ने णो पूयासक्कारलाभट्ठी धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवण्णे समियं चरे दंते दंविए वोसटकाए निग्गंथेत्ति वच्चे। ३–प्रशम० श्लोक १४२ : ग्रन्थः कर्माष्टविध, मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च । तज्जयहेतोरशठं, संयतते यः स निग्रन्थः ॥ ४-अ० चू० पृ० ५६ : महेसिणं ति इसी-रिसी, महरिसी-परमरिसिणो संबज्झंति, अहवा महानिति मोक्षो तं एसंति महेसिणो। ५-हा० टी० ५० ११६ : महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयो यतय इत्यर्थः, अथवा महान्तं एषितुं शील येषां ते महैषिणः । ६-जि. चू० पृ० १११ : महान्मोक्षीऽभिधीयते ..."महांत एषितुं शील येषां ..... .. 'ते महैषिणो । ७-हा० टी० ५० ११६ : इह च पूर्वपूर्वभाव एव उत्तरोत्तरभावो नियमितो हेतु हेतुमद्भावेन वेदितव्यः, यत एव संयमे सुस्थि तात्मानोऽत एव विप्रमुक्ताः, संयमसुस्थितात्मनिबन्धनत्वाद्विप्रमुक्तेः, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, अन्ये तु पश्चानुपूा हेतुहेतुमद्भाव मित्थं वर्णयन्ति—यत एव महर्षयोऽत एव निर्ग्रन्थाः, एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यम् । ८-(क) अ० चू० पृ० ५६ : तेसि पुव्वभणिताणं बाहिर-अन्भंतरगंथबन्धन-विप्पमुक्काणं आयपरोभयतातिणं एतं जं उरि एतम्मि अज्झयणे भणिहिति तं पच्चक्खं वरिसेति । (ख) जि० चू० पृ० १११ : तेसि पुवनिद्दिवाणं बाहिन्भंतरगंथविमुक्काणं आयपरोभयतातीणं एवं नाम जं उवरि एयमि अझयणे भणिहिति एवं जेसिमणाइण्णं । (ग) हा० टी०प० ११६ : तेषामिदं-वक्ष्यमाणलक्षणम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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