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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ३ : श्लोक १ टि० ३-४ ___ 'बायी' का शाब्दिक अर्थ रक्षक है । जो शत्रु से रक्षा करे उसे 'बायी' कहते हैं । लौकिक-पक्ष में इस शब्द का यही अर्थ है । आत्मिकक्षेत्र में इसकी निम्नलिखित व्याख्याएँ मिलती हैं : (१) आत्मा का त्राण-रक्षा करनेवाला—अपनी आत्मा को दुर्गति से बचानेवाला । (२) सदुपदेश-दान से दूसरों की आत्मा की रक्षा करनेवाला--उन्हें दुर्गति से बचानेवाला। (३) स्व और पर दोनों की आत्मा की रक्षा करनेवाला-दोनों को दुर्गति से बचानेवाला। (४) जो जीवों को आत्मतुल्य मानता हुआ उनके अतिपात से विरत है वह । (५) सुसाधु । 'तायी' शब्द की निम्नलिखित व्याख्याएँ मिलती हैं : (१) सुदृष्ट मार्ग की देशना के द्वारा शिष्यों का संरक्षण करनेवाला । (२) मोक्ष के प्रति गमनशील'। प्रस्तुत प्रसंग में दोनों चूर्णियों तथा टीका में इसका अर्थ स्व, पर और उभय तीनों का त्राता किया है । पर यहां 'वायी' का उपर्युक्त चौथा अर्थ लेना ही संगत है। जो बातें अनाचीर्ण-परिहार्य कही गयी हैं, वे हिंसा-बहुल हैं। निर्ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि वह त्रायी होता है—वह मन, वचन, काया तथा कृत, कारित, अनुमति से सर्व प्रकार के जीवों की सर्व हिंसा से विरत होता है । वह छोटे-बड़े सब जीवों को अपनी आत्मा के तुल्य मानता हुआ उनकी रक्षा करता है ---उनके अतिपात-विनाश से सर्वथा दूर रहता है। निर्ग्रन्थ को उसकी इस विशेषता की स्मृति 'ताइणं'-वायी शब्द द्वारा कराते हुए कहा है निम्न हिसापूर्ण कार्य उनके लिए अनाचीर्ण हैं । अत: इस शब्द का यहाँ 'सर्वभूतसंयत' अर्थ करना ही समीचीन है । यह अर्थ आगमिक भी है। ताइणं' शब्द 'उत्तराध्ययन' अ० २३ के १० वें श्लोक में केशी और गौतम के शिष्य-संघों के विशेषण के रूप में प्रयुक्त है। वहाँ टीकाकार इसका अर्थ करते हैं : 'त्रायिणाम्'– षड्जीवरक्षाकारिणाम् । अत: षड्जीवनिकाय के अतिपात से विरत -- सर्वतः अहिंसक यही अर्थ संगत है। ४. निर्ग्रन्थ (निग्गंथाण घ): जैन मुनि का आगमिक और प्राचीनतम नाम है निम्रन्थ ? १-(क) अ० चू० पृ० ५६ : त्रायन्तीति त्रातारः । (ख) जि० चू० पृ० १११ : शत्रोः परमात्मानं च त्रायंत इति त्रातारः। २-(क) सू० १४.१६; टी० प० २४७ : आत्मानं त्रातुं शोलमस्येति त्रायी जन्तूनां सदुपदेशदानतस्त्राणकरणशीलो वा तस्य स्वपरत्रायिणः । (ख) उत्त० ८.४ : टी० पृ० २६१: तायते त्रायते वा रक्षति दुर्गतेरात्मानम् एकेन्द्रियादिप्राणिनो वाऽऽवश्यमिति तायी वायी वेति । ३-(क) दश० ६.३७ : अनिलस्स समारंभ बुद्धा मन्नंति तारिसं। सावज्जबहुलं चेयं नेयं ताईहिं सेवियं ॥ (ख) उत्त० ८.६ : पाणे य नाइवाएज्जा से समीए त्ति वुच्चई ताई । ४-वश० ६.३७ : हा० टी०५० २०१ : 'ताईहि'--'त्रातृभिः' सुसाधुभिः । ५-हा० टी०प० २६२ : तायोऽस्यास्तीति तायी, तायः सुदृष्टमार्गोक्तिः, सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः । ६-सू० २१६.२४ : टी०५० ३६६ : 'तायी अयवयपयमयचयतयणय गता' वित्यस्य दण्डकधातोणिनिप्रत्यये रूपं, मोक्षं प्रति गमनशील इत्यर्थः । ७-(क) अ० चू० पृ० ५६ : ते तिविहा-आवतातिणो परतातिणो उभयतातिणो। (ख) जि० चू० पृ०१११ : आयपरोभयतातीणं। (ग) हा० टी० ५० ११६ : त्रायन्ते आत्मानं परमुभयं चेति त्रातारः। ८--(क) उत्त० १२.१६ : अवि एवं विणस्सउ अण्णपाणं, न य णं दहामु तुमं णियंठा ॥ (ख) उत्त० २१.२ : निग्गंथे पावयणे, सावए से वि कोविए। (ग) उत्त० १७.१ : जे के इमे पव्वइए नियंठे। . (घ) जि० चू० पृ० १११: निग्गंथग्गहणेण साहूण णिद्देसो कओ। (ड).हा० टी० ५० ११६ .'निर्ग्रन्थानां' साधूनाम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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