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________________ टिप्पण : अध्ययन ३ श्लोक १: १. सुस्थितात्मा हैं ( सुट्ठिअप्पाणं क ) : ___ इसका अर्थ है अच्छी तरह स्थित आत्मावाले । संयम में सुस्थितात्मा अर्थात् जिनकी आत्मा संयम में भली-भांति-आगम की रीति के अनुसार-स्थित--टिकी हुई-रमी हुई है। अध्ययन २ श्लोक ६ में 'अट्ठिअप्पा' शब्द व्यवहृत है । 'सुट्ठिअप्पा' शब्द ठीक उसका विपर्ययवाची है। २. विप्रमुक्त हैं ( विप्पमुक्काण ख ) : वि-विविध प्रकार से प्र—प्रकर्ष से मुक्त-रहित हैं अर्थात् जो विविध प्रकार से-तीन करण और तीन योग के सर्व भङ्गों से, तथा तीव्र भाव के साथ बाह्याभ्यन्तर ग्रंथ परिग्रह को छोड़ चुके हैं, उन्हें विप्रमुक्त कहते हैं । 'विप्रमुक्त' शब्द अन्य आगमों में भी अनेक स्थलों पर व्यवहृत हुआ है । उन स्थलों को देखने से इस शब्द का अर्थ सब संयोगों से मुक्त, सर्व संग से मुक्त होता है। कई स्थलों पर 'सव्वओ विप्पमुक्के' शब्द भी मिलता है, जिसका अर्थ है--सर्वत: मुक्त। ३. जाता हैं ( ताइणं ख ) : 'ताई', 'तायी' शब्द आगमों में अनेक स्थलों पर मिलते हैं । 'तायिणं' के संस्कृत रूप त्रायिणाम्' और 'तायिनाम्'-दो होते हैं। १-(क) अ० चू०प०५६ : तम्मि संजमे सोभणं ठितो अप्पा जेसि ते संजमे सुटिठतप्पाणो । (ख) जि० चू० पृ० ११० । (ग) हा० टी०प० ११६ : शोभनेन प्रकारेण आगमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते सुस्थितात्मानः । २–देखें-अध्ययन २, टिप्पण ४० । ३-(क) अ० चू० पृ० ५६ : विप्पमुक्काण–अभिंतर-बाहिरगंथबंधणविविहप्पगारमुक्काणं विष्पमुक्काणं । (ख) जि. चू०प०११०-११। (ग) हा० टी०प० ११६ : विविधम् –अनेक प्रकार:--प्रकर्षेण-भावसारं मुक्ता:--परित्यक्ताः बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेनेति विप्रमुक्ताः । ४– (क) उत्त० १.१ : संजोगा विप्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो । ___विणयं पाउकरिस्सामि, आणुपुब्वि सुणेह मे ॥ (ख) वही ६.१६ : बहुं खु मुणिणो भदं, अणगारस्स भिक्खुणो। सब्वओ विप्पमुक्कस्स, एगन्तमणुपस्सओ॥ (ग) वही ११.१ : संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो। आयारं पाउकरिस्सामि, आणुपुचि सुणेह मे ॥ (घ) वही १५.१६ : असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइंदिए सव्वओ विप्पमुक्के । अणुक्कसाई लहुअप्पभक्खी, चेच्चा गिहं एगचरे स भिक्खु ॥ (क) वही १८.५३ : कहिं धीरे अहेऊहि, अत्ताणं परियावसे । सव्वसंगविनिम्मुक्के, सिद्ध हवइ नीरए॥ ५–(क) दश० ३.१५, ६.३६,६६ । (ख) उत्त० ११.३१, २३.१०, ८.६ । (ग) सू० १।२.२.१७; ११२.२.२४; १।१४.२६; २।६.२०, २६.२४, २।६.५५ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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