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दसवेलियं ( दशवैकालिक )
१४- दुक्कराइ
करेत्ताणं
दुस्सहाइ सहेतु य । केइत्थ देवलोएस
केई
सिज्झंति नीरया ॥
१५ खवित्ता
संजमेण
सिद्धिमगमपुष्पत्ता ताइणो
पृथ्वकम्माई
तवेण य ।
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परिनिब्बुडा ॥ त्ति बेमि ।
दुष्कराणि
दुस्सहानि
केचिदत्र
४६
क्षपयित्वा संयमेन
सहित्वा
देवलोकेषु
केचित् सिध्यन्ति नीरजसः ॥ १४ ॥
कृत्वा
तपसा
सिद्धिमामनुप्राप्ता त्रायिणः
च ।
पूर्वकर्माणि
च ।
परिनिर्वृताः ||१५|| इति ब्रवीमि ।
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अध्ययन ३ : श्लोक १४-१५
दुष्कर" को करते हुए और दु:सह को सहते हुए उन निर्ग्रन्थों में से कई देवलोक जाते हैं और कई नीरज" कर्म-रहित हो सिद्ध होते हैं ।
स्व और पर के त्राता निर्ग्रन्थ संयम और तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय कर४, सिद्धि मार्ग को प्राप्त कर६५ परिनिर्वृत६६ मुक्त होते हैं।
ऐसा मैं कहता हूँ।
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