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________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) २६. सरसों की नाल (सासवनालियं ग ) । सरसों की नाल' । ३०. अपश्य गंडेरी (उपसंघ) - पक्ष या पर्व सहित इक्षु खण्ड सचित्त होता है । यहाँ उसी को अनिवृति — अपक्व कहा है । श्लोक १६ : ३१. तृण ( तणगस्स ख ) : जिनदास चूर्णि में तृण शब्द से अर्जक और मूलक आदि का ग्रहण किया है । अगस्त्यसिह स्थविर और टीकाकार इससे मधुर-तृण आदि का ग्रहण करते हैं है। संभव है शब्द गुणयुग का संक्षेप हो। नारियल खजूर केक और । इलोक २० : ३२. कच्ची (तरुणियं क ) : यह उस फली का विशेष है, जिसमें दाने न पड़े हों। ख २३. एक बार भूनी हुई (भज्जियं सई ) : २७९ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) श्लोक १९-२० टि० २१-३३ दो या तीन बार भूनी हुई फली लेने का निषेध नहीं है । इसलिए यहाँ सकृत् शब्द का प्रयोग किया गया है" । यहाँ केवल एक बार भुनी हुई फी लेने का निषेध है। धारा ११७ में दो-तीन बार भूनी हुई फी लेने का विधान भी है। १ – (क) अ० चू० पृ० १२६ : सासवणालिया सिद्धत्थगणाला । (ख) जि० चू० पृ० १९७ : 'सासवनालिअं' सिद्धत्थगणालो । (ग) हा० टी० प० १८५: 'सपनालिकां' सिद्धार्थकमञ्जरीम् । २ (क) अ० पू० पृ० १२ मणिय (ख) जि० चू० पृ० १९७: उच्छुखंडमवि पव्वेसु धरमाणेसु ता नेव अनवगतजीवं कप्पइ । ३ हा० टी० ५० १८५ : इभुखण्डम् अनिर्वृतं' सचित्तम् । ४- शा० नि० भू० पृ० ५२६ : इसका अर्थ वन-तुलसी है । १० चू० पृ० १६७ : तणस्स जहा अज्जगमूलादीणं । ५- जि० ६ (क) अ० चू० पृ० १२६ : तणस्स वा महुरतणातिकस्स । (ख) हा० टी० प० १५५ तुषस्य वा मधुरगादेः । ७ ८ (क) अ० चू० पृ० १३० : 'तरुणिया' अणापक्का । (ख) जि० चू० पृ० १६७ : 'तरुणिया' नाम कोमलिया । (ग) हा० टी० प० १८५ : 'तरुणां वा' असंजाताम् । (क) अ० चू० पृ० १३० : 'सतिभज्जिता' एक्कसि भज्जिता । (ख) जि० चू० पृ० १९७ : 'सई' भज्जिया' नाम एक्कसि भज्जिया । (ग) हा० टी० प० १८५ तथा भजतां 'सकृद्' एकवारम् । -आ० ० १०७ भिस् वा भिक्खुणी या गाहाब : बाबरणं वा मुजि वा मंया पाउलं वा भज्जियं फासूयं एसणिज्जं ति मुण्णमाणे लाभे सन्ते पडिगाहेज्जा । Jain Education International मधुर का अर्थ - लाल गन्ना या चावल हो सकता हारे के वृक्ष को जन्म कहा जाता है। वाडिया अणुपविट्ठे समानं पुण जाणे प उपवास भन्जयं दृश्तो वा भश्जियं तितो वा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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