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दसवेआलियं (दशवकालिक)
२७८ अध्ययन ५ (द्वि०उ०) : श्लोक १६, १८ टि० २४-२८
श्लोक १६: २४. कुचल कर (सम्मद्दिया' घ) :
इसी ग्रन्थ (५.१.२६) में सम्मर्दन के प्रकरण में 'हरिय' शब्द के द्वारा समस्त वनस्पति का सामान्य ग्रहण किया है । यहाँ भेदपूर्वक उत्पल आदि का उल्लेख किया है इसलिए यह पुनरुक्त नहीं है।
श्लोक १८: २५. श्लोक १८ :
शालूक आदि अपक्व रूप में खाए जाते हैं इसलिए उनका निषेध किया गया है ।
२६. कमलकन्द (सालुयं क):
कमल की जड़। २७. पलाशकन्द (विरालियं क):
विदारिका का अर्थ पलाशकन्द किया गया है। हरिभद्र सूरि ने यह सूचित किया है कि कुछ आचार्य इसका अर्थ पर्ववल्लि, प्रतिपर्ववल्लि, प्रतिपर्वकन्द करते हैं । अगस्त्य सिंह ने वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ 'क्षीर-विदारी, जीवन्ती और गोवल्ली' किया है। जिनदास के अनुसार बीज से नाल, नाल से पत्ते और पत्ते से कन्द उत्पन्न होता है वह 'विदारिका' हैं।
२८. पद्म-नाल (मुणालियंग)
पद्म-नाल पद्मिनी के कन्द से उत्पन्न होती है और उसका आकार हाथी दाँत जैसा होता है ।
१-हा० टी० ५० १८५ : संमृद्य दद्यात्, संमर्दनम् नाम पूर्वच्छिन्नानामेवापरिणतानां मर्दनम् । २-(क) अ० चू० पृ० १२८ : 'सम्मद्दमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणी य।' उप्पलादीण एत्थं हरियग्गहणेण गहण वि काल
___ विसेसेण एतेसि परिणामभेदा इति इह सभेदोपादाणं । (ख) जि० चू० पृ० १६६-१६७ : सीसो आह –णणु एस अत्थो पुवि चेव भणिओ जहा 'सम्महमाणी पाणाणि बीयाणि
हरियाई' ति हरियग्गहणेण वणप्फई गहिया, किमत्थं पुणो गहणं कयंति ?, आयरिओ भणइ -तत्थ अविसेसियं वणप्फइ
गहणं कयं, इह पुण सभेदभिण्णं वणप्फइकायमुच्चारियं । ३-जि० चू०प० १९७ : एयाणि लोगो खायति अतो पडिसेहणनिमित्तं नालियागहणं कयति ..... 'सासवनालि' सिद्धतत्थगणालो,
तमवि लोगो ऊणसंतिकाऊण आमगं चेव खायति । ४ .... (क) अ० चू० पृ० १२६ : 'सालुपं उप्पलकंदो।'
(ख) जि० चू० पृ० १६७ : 'सालुगं' नाम उप्पलकन्दो भण्णइ । (ग) हा० टी० ५० १८५ : 'शालूकं वा' उत्पलकन्दम् ।
(घ) शा० नि० भू० पृ० ५३६ : पद्मादिकन्दः शालूकम् । ५-हा० टी० ५० १८५ : 'विरालिकां' पलाशकन्दरूपां, पर्ववल्लिप्रतिपर्ववल्लिप्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये । ६-- अ० चू० पृ० १२६ : 'विरालिय' पलासकंदो अहवा 'छीरविराली' जीवन्ती गोवल्ली इति एसा । ७ ---जि० चू० पृ०१९७ : 'बिरालिय' नाम पलासकंदो भण्णइ, जहा बीए वस्सी जायंति, तीसे पत्ते, पत्ते कंदा जायंति, सा घिरालिया। ८---(क) अ० चू० पृ० १२६ : पउमाणमूला 'मुणालिया।
(ख) जि० चू० १० १६७ : मुणालिया-गयदंतसन्निभा पउमिणिकंदाओ निग्गच्छति । (ग) हा० टी० ५० १८५ : 'मृणालिकां' पद्मिनीकन्दोत्थाम् । (घ) शा० नि० भू० पृ० ५३८ : मृणालं पद्मनालञ्च ।
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