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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
२८० अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक २०-२१ टि० ३४-३६
३४. फली (छिवाडिक):
___ अगस्त्य चणि में 'छिवाड़ी' का अर्थ 'संबलिया' और जिनदास चूणि में 'सिंगा' तथा टीका में मूंग आदि की फली किया है। 'संबलिया' और 'सिंगा' दोनों फली के ही पर्यायवाची नाम हैं।
श्लोक २१: ३५. वंश-करीर (वेलुय ख):
अगस्त्य चणि में 'वेलुयं' का अर्थ 'बिल्व' या 'वंशकरिल्ल' किया है। जिनदास महत्तर और टीकाकार के अनुसार इसका अर्थ 'वंशकरिल्ल' है। आचाराङ्ग वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'बिल्व' किया है। यहाँ 'वेलूय' का अर्थ 'बिल्व' संगत नहीं लगता, क्योंकि दशवकालिक में 'बिल्व' का उल्लेख पहले ही हो चुका है। प्राकृत भाषा की दृष्टि से भी बल्ब' का 'बेलुय' रूप नहीं बनता, किन्तु 'वेणुक' का बनता है । यहाँ 'बेलुय' का अर्थ वंश-करीर-बांस का अंकुर होना चाहिए । अभिधान चिन्तामणि में दस प्रकार के शाकों में करीर' का भी उल्लेख है।
अभिधान चिन्तामणि की स्वोपज्ञ टीका में 'करीर' का अर्थ बांस का अंकुर किया गया है। सुश्रुत के अनुसार बांस के अंकुर कफकारक, मधुरविपाकी, विदाही, वायुकारक, कषाय एवं रूक्ष होते हैं । ३६. काश्यपनालिका ( कासवनालियं ख ) :
व्याख्याकारों ने इसका अर्थ 'श्रीपणि फल' और 'कसारु' किया है । 'श्रीपणि' के दो अर्थ हैं"-(१) कुंभारी और (२) कायफल ।
कंभारी--- यह वनस्पति भारतवर्ष, सिलोन और फिलीपाइन द्वीप-समूह में पैदा होती है । इसका वृक्ष ६० फुट तक ऊँचा होता है। इसका पिंड सीधा रहता है और उसकी गोलाई ६ फुट तक रहती है। इसकी छाल सफेद और कुछ भूरे रंग की रहती है। माघ से चंत्र तक इसके पत्ते गिर जाते हैं और नेत्र-वैशाख में नए पत्ते निकलते हैं। इसमें पीले रंग के फूल लगते हैं, जिन पर भूरे छींटे होते हैं। इसका फल १ इंच लम्बा, मोटा और फिसलना होता है । यह पकने पर पीला हो जाता है।
१-(क) अ० चू० पृ० १३० : 'छिवाडिया' संबिलिया।
(ख) जि० चू० पृ० १६७ : 'छिवाडी' नाम संगा।
(ग) हा० टी० ५० १८५ : 'छिवाडि' मिति मुद्गादिफलिम् । २- अ० चू० पृ० १३० : 'वेलुयं' बिल्ल वंसकरिल्लो वा। ३-(क) जि० चू० पृ० १६७ : वंसकिरिल्लो बेलुयं ।
(ख) हा० टी० ५० १८५ : 'वेणुक' वंशकरिल्लम् । ४- आ० चू० ११११८ वृ० : 'वेलुयं' बेलुयंति बिल्वम् । ५-दश० ५.१.७३ : अत्थियं तिदुयं बिल्लं । ६-हैम० ८.१.२०३ : वेणौ णो वा । ७.४.२४९-५० : 'मूलपत्रकरीराग्रफलकाण्डाविरूढकाः । त्वक पुष्पं फलकं शाकं दशधा...। ८-वही पृ० ४७७ : 'करीरं' वंशादेः । है-सु० (सू०) ४६.३१४ : 'वेणोः' करीराः कफला मधुरा रसपाकतः ।
विदाहिनो वातकरा: सकषाया विरूक्षणाः ।। १०-(क) अ० चू० पृ० १३० : 'कासवनालियं' सीवण्णी फलं कस्सारुकं ।
(ख) जि० चू० पृ० १६७ : 'कासवनालिअं' सीवणिफलं भण्णइ ।
(ग) हा०टी०प०१८५ : 'कासवनालिअं' श्रीवर्णीफलम्। ११- व. चं० पू० ४१५,५२७ । १२-व० चं० पृ० ४१५ ।
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