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________________ बिइया चूलिया : द्वितीय चूलिका विवित्तचरिया : विविक्तचर्या मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १-- मैं उस घुलिका को कहूँगा जो सुनी हई है, केवली-भाषित है, जिसे सुन भाग्यशाली जीवों की धर्म में मति उत्पन्न होती १-चूलियं तु पवक्खामि चूलिकां तु प्रवक्ष्यामि, सयं केलिभासियं। श्रतां केवलिभाषिताम् । जं सुणित्त सपुन्नाणं यां श्रुत्वा सपुण्यानां, धम्मे उप्पज्जए मई॥ धर्मे उत्पद्यते मतिः ॥१॥ २-अणुसोयपट्टिएबहुजणम्मि अनुस्रोतः प्रस्थिते बहुजने, पडिसोयलद्धलक्खेणं । प्रतिस्रोतो लब्धलक्ष्येण । पडिसोयमेव अप्पा प्रतिस्रोत एवात्मा, दायव्वो होउकामेणं ॥ दातव्यो भवितुकामेन ॥२॥ २-अधिकांश लोग अनुस्रोत में प्रस्थान कर रहे हैं ---भोग-मार्ग की ओर जा रहे हैं। किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत५ में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, जो विषय-भोगों से विरक्त हो संयम की आराधना करना चाहता है, उसे अपनी आत्मा को स्रोत के प्रतिकूल ले जाना चाहिए --विषयानुरक्ति में प्रवृत्त नहीं करना चाहिए। ३-अणुसोयसुहोलोगो अनुस्रोतः सुखो लोकः, पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । प्रतिस्रोत आश्रवः सुविहितानाम् : अणुसोओ संसारो अनुस्रोतः संसारः, पडिसोओ तस्स उत्तारो॥ प्रतिस्रोतस्तस्योत्तारः ॥३॥ ३-जन-साधारण को स्रोत के अनुकुल चलने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु जो सुविहित साधु हैं उसका आश्रव (इन्द्रिय-विजय)प्रतिस्रोत होता है । अनुस्रोत संसार है। (जन्म-मरण की परम्परा है) और प्रतिस्रोत उसका उतार है" (जन्म-मरण का पार पाना है)। ४--इसलिए आचार में पराक्रम करने वाले", संवर में प्रभूत समाघि रखने वाले१२ साधुओं को चर्या, गुणों४ तथा नियमों की ओर दृष्टिपात करना चाहिए। ४-तम्हा आयारपरक्कमेण तस्मादाचारपराक्रमेण, संवरसमाहिबहुलेणं । संवरसमाधिबहुलेन। चरिया गुणा य नियमा य चर्या गुणाश्च नियमाश्च, होति साहूण दट्टव्वा ॥ भवन्ति साधूनां द्रष्टव्याः ॥४॥ ५-अणिएयवासो समुयाणचरिया अनिकेतवासः समुदानचर्या, अन्नायउंछं पइरिक्कया य। अज्ञातोञ्छ प्रतिरिक्तता च । अप्पोवही कलहविवज्जणा य अल्पोपधिः कलहविवर्जना च, विहारचरिया इसिणं पसत्था॥ विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ताः ॥५॥ ५-अनिकेतवास१६ (गहवास का त्याग), समुदान चर्या (अनेक कुलों से भिक्षा लेना), अज्ञात कुलों से भिक्षा लेना७ एकान्तवास, उपकरणों की अल्पता और कलह का वर्जन -यह विहार-चर्या (जावन-चर्या) ऋषियों के लिए प्रशस्त है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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