SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 571
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२० द्वितीय चूलिका आमुख सूत्र का आशय समझने के लिए उसके उत्सर्ग-वाद यादि सारी दृष्टियों को ध्यान में रखना धावश्यक है। ऐसा करने पर ही यथार्थ अर्थ का ग्रहण हो सकता है। सूत्र के कोरे एक शब्द या वाक्य को पकड़ कर चले, वह उसका हृदय नहीं समझ सकता । - छट्ठे अध्ययन ( इलोक ६, ७) में कहा है- -अठारह स्थानों का वर्जन बाल, वृद्ध और रोगी सभी निर्ग्रन्थों के लिए अनिवार्य है । इसका अखण्ड और अस्फुटित रूप से पालन होना चाहिए। अठारह में से किसी एक स्थान की विराधना करने वाला निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट हो जाता है । इस शब्दावली में जो हृदय है, वह पूर्ण अध्ययन को पढ़े बिना नहीं पकड़ा जा सकता । पर्यङ्क (पन्द्रहवें स्थान ) और गृहान्तरनिषद्या (सोलहवें स्थान ) के अपवाद भी हैं। विशेष स्थिति में अवलोकनपूर्वक पर्यङ्क यादि पर बैठने की अनुमति भी दी है (देखो ६.५४ ) । वृद्ध, रोगी और तपस्वी के लिए गृहान्तर- निषद्या की भी अनुमति है (देखो ६.५९) । दसवेलियं (दशवेकालिक) इन सामान्य और विशेष विधियों को विधिवत् जाने बिना सूत्र का श्राशय ग्राह्य नहीं बनता । छठे और सातवें श्लोक की भाषा में मूल दोष का निषेध भी है। उसके लिए भाषा की रचना यही होनी चाहिए। किन्तु पर्यङ्क और निषद्या उत्तर दोष हैं। इनके निषेध की भाषा इतनी कठोर नहीं हो सकती। इनमें अपवाद का भी अवकाश है । परन्तु सबका निषेध एक साथ है इसीलिए सामान्य विधि से निषेध की भाषा भी सम है । विशेष विधि का अवसर थाने पर जिनके लिए अपवाद का स्थान था उनके लिए अपवाद बतला दिया गया है। इस प्रकार उत्सर्ग-अपवाद आदि अनेकान्त दृष्टि से सूत्र के आशय का निरूपण ही अर्थ है । यह सूत्र के मार्ग का आलोक है। इसे जानकर ही साधक सूत्रोक्त मार्ग पर चल सकता है। अध्ययन के उपसंहार में श्रात्म-रक्षा का उपदेश है । आत्मा को रखते हुए देह की रक्षा की जाए, वह देह-रक्षा भी संयम है । ग्रात्मा को गँवाकर देह-रक्षा करना साधक के लिए इष्ट नहीं होता । श्रात्मा की अरक्षा व सुरक्षा ही दुःख और दुःख-मुक्ति का हेतु है । इसलिए सर्व यत्न से आत्मा की ही रक्षा करनी चाहिए। समग्र दशवेकालिक के उपदेश का फल यही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy