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द्वितीय चूलिका : श्लोक ६-११
दसवेआलियं ( दशवकालिक )
५२२ ६-आइण्णओमाणविवज्जणा य आकीर्णावमानविवर्जना च,
ओसन्नदिट्ठाहडभत्तपाणे । उत्सन्नदृष्टाहृतभक्तपानं । संसटकप्पेण चरेज्ज भिक्खू संसृष्टकल्पेन चरेद् भिक्षुः, तज्जायसंस? जई जएज्जा॥ तज्जातसंसृष्टे यतिर्यतेत ॥६॥
६-आकीर्ण२१ और अवमान नामक भोज२२ का विवर्जन, प्रायः दृष्ट-स्थान से लाए हुए भक्त-पान का ग्रहण ऋषियों के लिए प्रशस्त है । भिक्षु संसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा ले ! दाता जो वस्तु दे रहा है उसीसे संसष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का यत्न करे२४ ।
७-अमज्जमंसासि अमच्छरीया अमद्यमांसाशी अमत्सरी च,
अभिक्खणं निविगई गओ य। अभीक्ष्णं निविकृति गतश्च । अभिवखणं काउस्सग्गकारी अभीक्ष्णं कायोत्सर्गकारी, सज्झायजोगे पयओ हवेज्जा॥ स्वाध्याययोगे प्रयतो भवेत् ।।७।।
७...-साधु मद्य और मांस का अभोजी२५ अमत्सरी, बार-बार विकृतियों को न खाने वाला२६, बार-बार कायोत्सर्ग करने वाला२७ और स्वाध्याय के लिए विहित तपस्या में२८ प्रयत्नशील हो ।
८-न पडिन्नवेज्जा सयणासणाई न प्रतिज्ञापयेत् शयनासनानि,
सेज्जं निसेज्जं तह भत्तपाणं। शय्यां निषधां तथा भक्तपानम् । गामे कले वा नगरे व देसे ग्रामे कुले वा नगरे वा देशे, ममत्तभावं न कहिं चि कज्जा॥ ममत्वभावं न क्वचित् कुर्यात् ॥८॥
८-साधु विहार करते समय गृहस्थ को ऐसी प्रतिज्ञा न दिलाए कि यह शयन, आसन, उपाश्रय, स्वाध्याय-भूमि जब मैं लौटकर आऊँ तब मुझे ही देना । इसी प्रकार भक्तपान मुझे ही देना—यह प्रतिज्ञा भी न कराए। गाँव, कुल, नगर या देश में-कहीं भी ममत्व भाव न करे।
६-गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा गृहिणो वैयापृत्यं न कुर्यात्,
अभिवायणं वंदण पूयणं च। अभिवादनं वन्दनं पूजनं च। असंकिलिहि समं बसेज्जा असंक्लिष्टैः समं वसेत्, मणी चरित्तस्स जओ न हाणी॥ मुनिश्चरित्रस्य यतो न हानिः ॥६॥
___६–साधु गृहस्थ का वैयापृत्य न करे२६, अभिवादन, वन्दन और पूजन न करे । मुनि संक्लेश-रहित साधुओं के साथ रहे जिससे कि चरित्र की हानि न हो।
१०न या लभेज्जा निउणं सहायं न वा लभेत निपुणं सहायं,
गुणाहियं वा गुणओ समं वा। गुणाधिकं वा गुणतः समं वा । एक्को वि पावाई विवज्जयंतो एकोऽपि पापानि विवर्जयन्, विहरेज्ज कामेस असज्जमाणो॥ विहरेत् कामेष्वसज्जन ॥१०॥
१०---यदि कदाचित् अपने से अधिक गुणी अथवा अपने समान गुण वाला निपुण साथी न मिले तो पाप-कर्मों का वर्जन करता हुआ काम-भोगों में अनासक्त रह अकेला ही (संघ-स्थित) विहार करे ।
११-संवच्छरं चावि परं पमाणं संवत्सरं चाऽपि परं प्रमाणं,
बीयं च वासं न तहि वसेज्जा। द्वितीय च वर्ष न तत्र वसेत् । सत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू सूत्रस्य मार्गेण चरेद् भिक्षुः, सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ॥ सूत्रस्यार्थो यथाज्ञापयति ॥११॥
११-जिस गांव में मुनि काल३२ के उत्कृष्ट प्रमाण तक रह चूका हो (अर्थात वर्षाकाल में चातुर्मास और शेष काल में एक मास रह चुका हो) वहाँ दो वर्ष (दो चातुर्मास और दो मास) का अन्तर किए बिना न रहे । भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग से चले, सूत्र का अर्थ जिस प्रकार आज्ञा दे वैसे चले।
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