________________
विवितचरिया (विविक्तचर्या)
१२- जो
पुव्वरसावररत्तकाले
संपिक्स
अप्पगमप्पए ।
कि मे कई कि च मे किच्च से कि सक्कणिज् न समायरामि ॥
१३- किं मे परो पासइ किं व अप्पा किं वाहं खलियं न विवज्जयामि। इजे सम्म अणुपासमानो अणागयं नो परिबंध कृज्जा ॥
१४ जत्थेव पारो कई दुप्पउत काण वाया अ माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहज्जा आइओ खिप्यमिय क्लीणं ॥
१५ जरिता जोग जिद्द दिवस्स धिमओ सप्पुरिसल्स निच्वं । तमाहू लोए पडिवुद्धजीवी सो जीवइ संजमजीविएणं ॥
१६ - अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो सब्बिविएहि सुसमाहिएहि । अरक्लिओ जाइप उबेह सुरक्विज सम्यहाण बुवइ ॥ ति बेमि
Jain Education International
५२३
यः पूर्वराजाप, संप्रेक्षते आत्मकमात्मकेन । किमया कृतं कि मेहत्यशेष कि शकनीयं न समाचरामि ॥१२॥
कि मम परः पश्यति किं वारमा, किवा स्वलितं न विवर्जयामि।
इत्येवं सम्यगनुपश्यन्, अनागतं नो प्रतिबन्धं कुर्यात् ॥१३॥
यत्रेव पक्तिं कायेन वाचाऽथ मानसेन । तव धीर: प्रतिसंहरेत् आकीर्णकः क्षिप्रमिव खलिनम् ॥ १४ ॥
यस्येदृशा योगा जितेन्द्रियस्य, धृतिमतः सत्स्यस्य नित्यम् । तमाहुलके प्रतिबुद्धजीविनं, स जीवति संयमजीवितेन ॥ १५ ॥
आत्मा खलु सततं रक्षितव्यः, सर्वः सुसमाहितः । अरक्षितो जातिपचति सुरतः सर्वमुच्यते ॥ १६॥ इति ब्रवोमि ।
For Private & Personal Use Only
द्वितीय चूलिका श्लोक १२-१६
१२- जो रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में अपने-आप अपना आलोचन करता है - मैंने क्या किया ? मेरे लिए क्या कार्य करना शेष है ? वह कौन सा कार्य है जिसे मैं कर सकता हूँ पर प्रमादवश नहीं कर रहा हूँ?
१३ - क्या मेरे प्रमाद को कोई दूसरा देखता है अथवा अपनी भूल को मैं स्वयं देख लेता हूँ ? वह कौन सी स्खलना है जिसे मैं नहीं छोड़ रहा हूँ ? इस प्रकार सम्यक् प्रकार से आत्म-निरीक्षण करता हुआ मुनि अनागत का प्रतिबन्ध न करे असंयम में न बंधे, निदान न करे ।
१४- जहाँ कहीं भी मन, वचन और काया को दुष्प्रवृत्त होता हुआ देखे तो धीर साधु वहीं सम्हल जाए। जैसे जातिमान् अश्व लगाम को खींचते ही सम्हल जाता है ।
१५ - जिस जितेन्द्रिय, धृतिमान् सत्पुरुष के योग सदा इस प्रकार के होते हैं उसे लोक में प्रतिबुद्धजीवी कहा जाता है जो ऐसा होता है, वही संपभी जीवन जीता है।
१६ - सब इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए । अरक्षित आत्मा जातिय (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है ।
ऐसा मैं कहता हूँ ।
www.jainelibrary.org