________________
पंचमं अज्झयणं : पंचम अध्ययन पिंडेसणा (वीओ उद्देसो) : पिण्डैषणा (द्वितीय उद्देशक)
मूल
संस्कृत छाया
१-पडिग्गहं संलिहिताणं
लेव-मायाए संजए। दुगंधं वा सुगंधं वा सव्वं भंजे न छड्डए॥
प्रतिग्रहं संलिह्य, लेपमात्रया संयतः । दुर्गन्धं वा सुगन्धं वा, सर्व भुञ्जीत न छर्देत् ॥१॥
हिन्दी अनुवाद १. संयमी मुनि लेप लगा रहे तब तक पात्र को पोंछ कर सब खा ले, शेष न छोड़े, भले फिर वह दुर्गन्धयुक्त हो या सुगन्धयुक्त'।
२-सेज्जा निसीहियाए
समावन्नो व गोयरे । अयावयट्ठा भोच्चा णं जइ तेणं न संथरे ।
शय्यायां नैषेधिक्यां, समापन्नो वा गोचरे । अयावदर्थं भुक्त्वा 'ण', यदि तेन न संस्तरेत् ॥२॥
२-३-उपाश्रय या स्वाध्याय-भूमि में अथवा गोचर (भिक्षा) के लिए गया हुआ मुनि मठ आदि में अपर्याप्त खाकर यदि न रह सके तो कारण उत्पन्न होने पर पूर्वोक्त विधि से और इस उत्तर (वक्ष्यमाण) विधि से भक्त-पान की गवेषणा करे ।
३-तओ
भत्तपाणं विहिणा इमेणं
कारणमुप्पन्ने
गवेसए। पुव्व-उत्तण उत्तरेण य॥
सतः कारणे उत्पन्ने, भक्त-पानं गवेषयेत् । विधिना पूर्वोक्तेन, अनेन उत्तरेण च ॥३॥
४-कालेण निक्खमे भिक्खू
कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवज्जेत्ता काले कालं समायरे ॥
कालेन निष्कामेद् भिक्षुः, कालेन च प्रतिक्रामेत् । अकालं च विवयं, काले कालं समाचरेत् ॥४॥
४-भिक्षु समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर लौट आए। अकाल को वर्जकर जो कार्य जिस समय का हो, उसे उसी समय करे।
५-१°अकाले चरसि भिक्खू
कालं न पडिलेहसि । अप्पाणं च किलामेसि सन्निवेसं च गरिहसि ॥
अकाले चरसि भिक्षो! कालं न प्रतिलिखसि । आत्मानं च क्लामयसि, सन्निवेशं च गर्हसे ॥५॥
५.-भिक्षो ! तुम अकाल में जाते हो, काल की प्रतिलेखना नहीं करते, इसीलिए तुम अपने-आप को क्लान्त (खिन्न) करते हो और सन्निवेश (ग्राम) की निन्दा करते हो।
६-सइ काले चरे भिक्खू
कुज्जा पुरिसकारियं । अलाभो त्ति न सोएज्जा तवो त्ति अहियासए ॥
सति काले चरेद् भिक्षुः, कुर्यात् पुरुषकारकम् । 'अलाभ' इति न शोचेत्, तप इति अधिसहेत ॥६॥
६-भिक्षु समय होने पर भिक्षा के लिए जाए; पुरुषकार (श्रम) करे ; भिक्षा न मिलने पर शोक न करे; 'सहज तप ही सही'-यों मान भूख को सहन करे।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org