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दसवेआलियं (दशवैकालिक) ७-"तहेवुच्चावया पाणा
भत्तट्टाए समागया। त-उज्जुयं न गच्छेज्जा जयमेव परक्कमे ॥
तथैवोच्चावचाः प्राणाः, भक्तार्थ समागताः । तहनुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत् ॥७॥
अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक ७-१३
७. इसी प्रकार नाना प्रकार के प्राणी भोजन के निमित्त एकत्रित हों, उनके सम्मुख न जाए। उन्हें त्रास न देता हुआ यतनापूर्वक
जाए।
८-गोयरग्ग-पविट्ठोउ ।
न निसीएज्ज कत्थई । कहं च न पबंधेज्जा चिद्वित्ताण व संजए॥
गोचराग-प्रविष्टस्तु, न निषीदेत् कुत्रचित् । कथां च न प्रबध्नीयात्, स्थित्वा वा संयतः ॥८॥
८-गोचराग्र के लिए गया हुआ संयमी कहीं न बैठे और खड़ा रह कर भी कथा का प्रबन्ध न करे।
E-१५अग्गलं फलिहं दारं
कवाडं वा वि संजए। अवलंबिया न चिट्ठज्जा गोयरग्गगओ मुणी ॥
अर्गला परिघं द्वारं, कपाट वाऽपि संयतः । अवलम्ब्य न तिष्ठेत्, गोचराग्रगतो मुनिः ॥६॥
---गोचराग्र के लिए गया हुआ संयमी आगल, परिध१६, द्वार या किवाड़ का सहारा लेकर खड़ा न रहे।
श्रमणं ब्राह्मणं वाऽपि, कृपणं वा वनीपकम् । उपसंक्रामन्तं भक्तार्थ, पानार्थं वा संयतः ॥१०॥
१०-समणं माहणं वा वि
किविणं वा वणीमगं । उबसंकमंतं भत्तट्ठा
पाणट्ठाए व संजए ॥ ११-तं अइक्कमित्त न पविसे
न चिट्ठे चक्खु-गोयरे। एगंतमवक्कमित्ता तत्थ चिट्ठज्ज संजए ॥
१०-११---भक्त या पान के लिए उपसंक्रमण करते हुए (घर में जाते हुए) श्रमण, ब्राह्मण, कृपण' या वनीपक को लांघकर संयमी मुनि गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे। गृहस्वामी और श्रमण आदि की आँखों के सामने खड़ा भी न रहे। किन्तु एकान्त में जाकर खड़ा हो जाए।
तमतिक्रम्य न प्रविशेत्, न तिष्ठेत् चक्षुर्गोचरे। एकान्तमवक्रम्य, तत्र तिष्ठेत् संयतः ॥११॥
१२-वणीमगस्स वा तस्स
दायगस्सुभयस्स वा। अप्पत्तियं सिया होज्जा लहुत्तं पवयणस्स वा ॥
वनीपकस्य वा तस्य, दायकस्योभयो । अप्रीतिकं स्याद् भवेत्, लघुत्वं प्रवचनस्य वा ॥१२॥
१२---भिक्षाचरों को लांघकर घर में प्रवेश करने पर वनीपक या गृहस्वामी को अथवा दोनों को अप्रेम हो सकता है अथवा उससे प्रवचन की लघुता होती है।
१३–पडिसेहिए व दिन्ने वा
तओ तम्मि नियत्तिए। उवसंकमेज्ज भत्तट्ठा पाणट्ठाए व संजए॥
प्रतिषिद्ध वा दत्ते वा, ततस्तस्मिन् निवृत्ते । उपसंक्रामेद् भक्तार्थ, पानार्थं वा संयतः ।।१३।।
१३- गृहस्वामी द्वारा प्रतिषेध करने या दान दे देने पर, वहां से उनके वापस चले जाने के पश्चात् संयमी मुनि भक्त-पान के लिये प्रवेश करे।
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