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________________ भूमिका ३१ २०६६१५ से मिलता हैतुलना अन्यत्र भी प्राप्त होती है।' आयारचूला के पहले और चौथे अध्ययन से क्रमशः इसके पाँचवें और सातवें अध्ययन की तुलना होती है । किन्तु हमारे अभिमत में दशवैकालिक के बाद का निर्यूहण है। इसके दूसरे, नवें तथा दसवें अध्ययन का विषय उत्तराध्ययन के प्रथम और पन्द्रहवें अध्ययन से तुलित होता है, किन्तु वह अंग बाह्य आगम है । वह यह सूत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में मान्य रहा है । श्वेताम्बर इसका समावेश उत्कालिक सूत्र में करते हुए चरणकरणानुयोग के विभाग में इसे स्थापित करते हैं मूलसूत्र भी माना गया है। इसके कर्तृव के विषय में भी वेताम्बर साहित्य में प्रामाणिक ऊहापोह है । श्वेताम्बर आचार्यों ने इस पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, दीपिका, अवचुरी आदि-आदि व्याख्या-ग्रन्थ लिखे हैं । दिगम्बर परम्परा में भी यह सूत्र प्रिय रहा है। धवला, जयधवला, तत्वार्थ राजवार्तिक, तत्वार्थ श्रुतसागरीय वृत्ति आदि में इसके विषय का उल्लेख मिलता है; परन्तु इसके निश्चित कर्तृत्व तथा स्वरूप का कहीं भी विवरण प्राप्त नहीं होता। इसके कर्तृत्व का उल्लेख करते हुए “आरातीयैराचार्यै निर्यूढं" - इतना मात्र संकेत देते हैं । कब तक यह सूत्र उनको मान्य रहा और कब से यह अमान्य माना गया यह प्रश्न आज भी असमाहित है । व्याख्या- ग्रन्थ दशकालिक की प्राचीनतम व्याख्या निर्युक्ति है । उसमें इसकी रचना के प्रयोजन, नामकरण, उद्धरण-स्थल, अध्ययनों के नाम, उनके विषय आदि का संक्षेप में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। यह ग्रन्थ उत्तरवर्ती सभी व्याख्या-ग्रन्थों का आधार रहा है। यह पद्यात्मक है। इसकी गाथाओं का परिमाण टीकाकार के अनुसार ३७१ हैं । इसके कर्ता द्वितीय भद्रबाहु माने जाते हैं । इनका काल-मान विक्रम की पांच-ताब्दी है। इसकी दूसरी पद्यात्मक व्याख्या भाष्य है । चूर्णिकार ने भाष्य का उल्लेख नहीं किया है। टीकाकार भाष्य और भाष्यकार का अनेक स्थलों में प्रयोग करते हैं। टीकाकार के अनुसार भाष्य की ६३ गाथाएँ हैं । इसके कर्ता की जानकारी हमें नहीं है । टीकाकार ने भी भाष्यकार के नाम का उल्लेख नहीं किया है। 3 वे निर्मुक्तिकार के बाद और चूर्णिकार से पहले हुए हैं । हरिभद्रसूरि ने जिन गाथाओं को भाष्यगत माना है, वे चूर्ण में हैं। इससे जान पड़ता हैं कि भाष्यकार चूर्णिकार के पूर्ववर्ती हैं। भाष्य के बाद चूर्णियाँ लिखी गई हैं । अभी दो चूर्णियां प्राप्त हैं। एक के कर्त्ता अगस्त्यसिंह स्थविर हैं और दूसरी के कर्ता १ - ( क ) आयारो, ११११८ : संति तसा पाणा तंजहा अंडया पोयया जराउया रसवा संसेवया समुद्रमा उमिया ओवाया। (ख) आयारो, २।१०२ : (ग) सूत्रकृत १।२।२।१८: -- Jain Education International (क) दशवै० ४ ०९ : (ख) दशवं ० ५।२।२८ : (ख) दशवे० ३।३ : अंडया पोयया जराउया रसया संसद्मा सम्बुद्दिमा उभिया उववाइया । ण मे देति ण कुप्पेज्जा । सामायिक माह तस्स तं गिमितेऽसणं भवति । २ – (क) दशवे० हारिभद्रीय टीका प० ६४ : भाष्यकृता पुनरुपन्यस्त इति । (ख) दशवं० ० हा० टी० प० १२० : आह् च भाष्यकार । (ग) दशवे० हा० टी० प० १२८ व्यासार्थस्तु भाव्यादवसेयः । इसी प्रकार भाष्य के प्रयोग के लिए देखें - हा० टी० प० : १२३, १२५, १२६, १२, १३३, १३४, १४०, १६१, १६२, १७८ । अतर न कुप्पेजा। ...गिहिमत्ते ३०हा० टी० प० १३२ सामेव निर्बुक्तिगाथांनी व्याख्यामुराह भाग्यकारः । एतदपि नित्यत्वादिसाधकमिति निि गाथायामनुपन्यस्तमयुक्त सूक्ष्मधिया भाष्यकारेणेति यथार्थः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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